खिड़कियां
मेहरा साहब उस दिन विमान मे बैठे बैठे किसी फिल्मी पत्रिका मे एक अभिनेता के सपनों के घर के बारे मे पढकर चौंक गये थे. चौंकना स्वाभाविक था, क्योकि वह अपने सपनों का महल किसी सुरम्य वादी या स्वर्ग मे नही बसाना चाहता था. वह तो बस इतना चाहता था कि उसका घर लडकियों के किसी कालेज के होस्टल के सामने हो और उसी मे वह अपनी पूरी जिन्दगी हंसी खुशी गुजार दे.
तब उन्हे ख्याल आया था कि उनका स्वयं का घर भी तो एक ऐसे ही रमणीय स्थल पर है. दिन भर सामने से एक पर एक छप्पन छूरी लोगों के दिलों मे बहत्तर पेंच पैदा करती गुजरती रहती है. फिर दूसरी मंजिल के सबसे पश्चिम वाले कमरे की खिडकी तो होस्टल के शयन कक्ष के ठीक सामने खुलती है.अगर शयन कक्ष की खिडकियाँ भी खुली हो तब तो क्या क्या देखने को नही मिलता है. और हाय! गर्मियों मे तो मेहरा साहब कई कई रातें जागकर गुजार किया करते थे. लडकियाँ ठंडी हवा के लिए खिडकी खुली छोड कर सोती थी और भूले से अगर परदा भी नही खिंचा होता तो रात को उनके शरारती कपडे कहाँ कहाँ से फिसल जाते कि तौबा तौबा.
वैसे मेहरा साहब तो समय के साथ साथ बूढे होते चले गये, पर लडकियाँ कभी बूढी नही हुई. हर साल नई-नई और खूबसूरत लडकियाँ आ जाती. उनके जमाने मे तो इतनी लाजवाब लडकियाँ होती भी नही थी, खैर..... अब तो सदा व्यापार के सिलसिले मे बाहर रहना होता है , तो भला ऐसे मौके कहाँ? लेकिन अचानक उन्हे अपने दोनों बेटों की याद आई, वे? वे तो.........?
वे उसी शाम उस कमरे मे गये. शयन कक्ष की खिडकियाँ पूर्ववत खुली थी. उन्होने गौर से देखा, कोई लडकी अपने कपडे बदल रही थी. उन्होने शर्म से आंखे बन्द कर ली.
उसी क्षण उन्होने यह भी निश्चय कर लिया कि उन्हे छात्रावास के वार्डन से मिलना चाहिए.
दूसरी ही सुबह पहुंच भी गये और कहने लगे,”समझ मे नही आता आपके यहाँ की लडकियाँ कितनी बेशरम है? अन्धे तक को भी दिखाई पडता है कि पहाड जैसा मकान सामने खडा है , फिर भी कमरे की खिडकियाँ होले यो कपडे बदलती रहती है कि...........बेशरम.”
युवा वार्डन घडी भर को चुप रही. फिर बोली,” अरे, मेहरा साहब, लडकियाँ तो लडकियाँ ! नादान है, भोली है, यों तो परदे खींच ही देती होंगी, पर उम्र ही ऐसी है कि दुपट्टा भी सम्भाले नही सम्भलता है. फिर खिडकी तो खिडकी है. और फिर अगर आपको इनकी शर्म का इतना ख्याल है तो आप अपनी खिडकी बन्द करके भी तो उन्हे बेशरम होने से बचा सकते हैं”
मेहरा साहब के पास अब कोई जवाब नही था.
9 टिप्पणियां:
वाकई. यह तो देखने वाले पर है कि वह क्या देख रहा है. और जो पैमाना अपने लिये है - वही अपने बच्चों के लिये नहीं है. यह द्वैत क्यों होता है जीवन में?!
vaha vaha bahut acchaa !!
अच्छा लिखा है
लड़के बड़े हो जाते हैं तो आदमी की सोच में अजब बदलाव आ जाता है, यह तो हम खुद अहसास रहे हैं मगर क्यूँ, यह तो क्या बतायें!! :)
बढ़िया मुद्दा उठाया है.
''वह तो बस इतना चाहता था कि उसका घर लडकियों के किसी कालेज के होस्टल के सामने हो और उसी मे वह अपनी पूरी जिन्दगी हंसी खुशी गुजार दे.'' वाकई मुद्दा अच्छा है,
अत्यन्त रोचक!
किन्तु आजकल भँवरे कलियों का चक्कर नहीं लगाते। तितलियों फूल फूल पर मँडराती हैं। काश कि आपका "वह" एक "फूल" होता!
बेहतरीन, बहुत बढिया लिखते है आप, कभी हमारे ब्लॉग पे भी दर्शन दे
अमरजीत सिंह
http://jagjitsingh.wordpress.com
मजा आ गया
दीपक भारतदीप
बहुत ही अहम मुद्दा आपने बड़े रोचक ढ़ंग से प्रस्तुत किया है।
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