24/7/07

आईना मिलते ही चेहरा खो जाता है.

हम जिन्दगी में जाने क्या क्या पाने की ख्वाहिश रखते थै. उस जाने क्या क्या को पाने में एक दिन हम पाते हैं कि हम खुद खो गये हैं. कुछ और थे ,कुछ और हो गये हैं. किसी के पास आने में कई दफा हम स्वयं से ही कितने दूर चले जाते है. यही ख्याल आ रह है बार बार कि हम कहाँ से आये और यहाँ किस लिए है . यहाँ से कहाँ जायेंगे. क्या नदी में बहते सूखे पत्ते नहीं है हम. हम पर हमारा वश है क्या? बहुत दिनों बाद एक कविता लिखी आज


आईना


पहले


मेरे पास एक चेहरा था


आईना नहीं था


आईना जुटाने में


चेहरा ही खो गया


अब इस आईने का


मैं क्या करुँ?

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