5/7/07

रेलवे रिजर्वेशन

सुबह सुबह पिताजी ने सोते से जगाया
और एक जोरदार लेक्चर सुनाया.
बोले तुम से तो कुछ भी नहीं हो पाता है
शर्मा जी के लड़के को देखो
बन्दे ने क्या कमाल करके दिखाया है.
बिना दलाल से मिले रेलवे रिज़र्वेशन काउंटर से
गर्मी की छुट्टी में गाँव जाने का कनफर्म टिकट ले कर आया है
अरे जरा भी शर्म है तो होश में आओ
और कहीं जाकर चुल्लू भर पानी में डूब जाओ
पिताजी का रूख देखकर मन ही घबरा गया
और सच बताउँ तीन बार चक्कर भी आ गया
तो पिताजी बोले तू तो ऐसे घबरा रहा है
जैसे रिज़र्वेशन काउंटर कोई लन्दन में है
अरे बेटे स्थिति तनाव पूर्ण किंतु नियंत्रण में है
तो अगली सुबह नहा धोकर मैंने जैसे ही
रिज़र्वेशन सेंटर जाने के लिए कदम बढ़ाया
माताजी का कोमल स्वर आया
बेटे मैं तुम्हें ऐसे ही नहीं जाने दूंगी
तू आज पहली बार टिकट लेने जा रहा है
मैं माता दुर्गे का व्रत रखूंगी
दादी माँ ने तो कमाल ही कर दिया
पुरानी सन्दूक से एक तावीज निकाल कर लायी
और मेरे बाँह में बान्ध दिया
भाभी बोली – दिन का खाना साथ रख लो
भूख लगेगी तो काम आयेगा
रात का खाना छोटा भाई तुझे दे आएगा
तो बड़े भाई बोले बिस्तर भी साथ रख लो
क्या पता काम हो आये टिकट ही लाने जा रहे हो
कहीं रात दो रात रुकना हो जाये
बड़ी बहन बोली- अब जब जा ही रहे हो रिज़र्वेशन कराने
क्या होगा ये तो भगवान ही जाने
छोटी बहन बोली- भैया मेरे साथ इंसाफ करना
मेरा कुछ कहा सुना हो तो माफ करना
खैर साहब किसी तरह घर वालों से पीछा छुरा कर बाहर आया
तो सामने एक बीमा का एजेंट नजर आया हमें देखते ही मुस्कुराया
बोला- रिज़र्वेशन कराने जा रहे हो
बहुत बड़ा रिस्क उठा रहे हो
पहले अपना बीमा कराओ
फिर टिकट लेने के लिए जाओ
पड़ोसी ने सुना तो बोला_ एक जरूरी काम कर लिया है
अरे अपनी वसीयत लिख कर रख दिया है.
खैर साहब रिज़र्वेशन सेंटर पहुँचे तो अजीब नजारा था
दृश्य बड्रा सुन्दर बड़ा प्यारा था क़तारों में कतार थी
भीड़ एक दूसरे के सिर पर सवार थी;
किसी की ज़बान पर जीसस किसी के मुँह पर अल्लाह
तो किसी के मन में हनुमान था
पूरा रिज़र्वेशन सेंटर अपने आप में एक छोटा सा हिन्दुस्तान था
लोग लेटे थे बैठे थे खड़े थे
कुछ तो बिस्तर बिछाये पड़े थे
तो हनुमान चालीसा पढ़ता हुआ
मैं भी एक कतार में खड़ा हुआ
आगे खड़ा बूढ़ा अखबार पढ़ रहा था
बड़ा निश्चिंत लग रहा था
मैंने कहा क्या पेपर आज का है
वो बोला जी नहीं पिछले इतवार का है
मैं बोला क्यू भाया
बोला- क्या करुँ उसके बाद से इधर कोई बेचने ही नहीं आया
मैं ने कहा – आज मेरी मां ने माता दुर्गे का व्रत रखा है
मैं टिकट लेकर जाउंगा तो प्रसाद खिलायेगी
बगल में खड़ा बूढा बोला- बेचारी दिन भर का उपवास करके
मुफ्त में पछतायेगी
तुम्हे नहीं मालूम इस टिकट की कतार ने
मेरी जिन्दगी का कितना बड़ा हिस्सा लिया है
अरे मैंने तो अपनी लड़की का रिश्ता भी
अभी अभी इसी कतार में तय किया है
मैंने कहा कौन है कौन है?
मतलब आपका होने वाला रिश्तेदार बोला खुद नहीं समझ सकते
अरे और कौन ये काउंटर पर बैठा सरदार
मैं ने कहा इस बूढ़े खूसट से करेंगे अपनी लड़की की शादी
तब तो हो गई उसकी पूरी बरबादी
बोला बरबादी किस की है ये तो वक्त ही बतलायेगा
लेकिन हर साल गर्मी में गाँव जाने का टिकट तो आसानी से मिल जायेगा
तो मित्रों इसी तरह सुबह का सूरज शाम को अस्त हो रहा था
और मैं भी ख्डा खड़ा बिल्कुल पस्त हो रहा था.
बजने को थे रात के आठ
और आगे अभी भी आगे आदमी खड़े थे साठ
तभी भगदड़ सी मची शोर में मेरा स्वर मन्द हो गया
और देखते ही देखते काउंटर भी बन्द हो गया
तो खाली हाथ घर आये मुँह लटकाये
अब कैसे बतायें कैसे बताय़ें कि टिकट नहीं मिला है
कि टिकट मिलना एक भरम है एक भुलावा है
एक धोखा है एक छलावा है
सो कुछ कह नहीं पाया तो मुँह लटका कर ख़डा हो गया
तो बड़ा भाई बोला टिकट तो मिला नहीं क्या फायदा मुंह लटकाने से ?
बन्द करो इस नाटक को चेहरे पे बारह बज रहे हैं
जैसे चेहरा नहीं अनाथालय का फाटक हो.
मगर इससे पहले कि कुछ बताता
अपनी सफाई मैं कुछ सुनाता
बड़ी बहन आ कर पीठ सह लाने लगी
छोटी ढाढ़स दिलाने लगी
बोली ये भी अच्छा है कि टिकट की किल्लत है.
आसानी से नहीं मिलती है.
पर आज के जमाने में क्या पता
कब कहाँ कौन सी ट्रेन में बम का धमाका हो जाये
और हम गाँव पहुंचने के बजाय कहीं और पहुंच जायें
तो मित्रों कविता समाप्त हुई
पर आप तालिय़ाँ बजाने का कष्ट मत कीजिए
और कविता जरा सी भी पसन्द आई हो
Pतो अगली गर्मी की छुट्टी में गाँव जाने की
पाँच कनफर्म टिकट दिलवा दीजिए.

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

hahaha..
sahi kavita thi... :)

likhte rahein...