27/8/07

कवि सम्मेलन आयोजक

आदरणीय ग़ाडियाजी,
नमस्कार् !
आपको यह पत्र लिखने की जरूरत इसलिए महसूस कर रहा हूँ क्योंकि पिछले कई सालों से परिवार काव्योत्सव का निमंत्रण आप भेजते रहे है और मैं कई सालों से नियमित पुरस्कार समारोह और कवि सम्मेलन का आनन्द उठाता रहा हूँ. इस बार भी आपने निमंत्रित किया और इस बार भी मैं आया बल्कि अपने और भी कई काव्य रसिक दोस्तों के साथ आया. मैं जहाँ बैठा था, जाहिर है उसके आगे पीछे भी श्रोतागण बैठे थे. देर से शुरू हुए कार्यक्रम के दौरान उनसे मारवाडी और हिन्दी में जो प्रतिक्रिया सुनने को मिली उनसे आपको भी दो चार् कराना अच्छा रहेगा.
एक तो ये थी कि यार, इस प्रोग्राम में नेता वेता नहीं आते ये तो अच्छी बात है, पर भाषण इतने लोगों के होते हैं कि वो भी कसर पूरी हो जाती है. और सच में कविता शुरू होते - होते सिर दर्द शुरू हो जाता है. ग़ाडियाजी वैसे मैंने भी कुछ - कुछ् ऐसा ही महसूस किया. चलिए संस्था के लोगों ने कुछ बोला वो तो जरूरी था, क्योंकि आप लोग इतना बड़ा प्रोग्राम करते है. अपनी भावनायें व्यक्त करना ही चाहिए. लेकिन कवियों को भी, जो काव्य पाठ्य करने ही वाले थे, उनसे भी वक्तव्य देने को कहा गया तो श्रोताओं के सब्र का बाँध टूट गया था. उन्होने मन ही मन गालियाँ नहीं दी हो तो उनका शुक्रगुजार होना चाहिए. कवि का वक्तव्य उसकी कविता ही है. उसे जो कहना है अपने काव्य पाठ के दौरान बोल सकता है. कवि तो कवि आप लोगों ने तो संचालक महोदय तक को वक्तव्य देने को माइक सौंप दिया. जब संचालक हर कवि के आने के पहले और जाने के बाद बोलने ही वाला है तो फिर वक्तव्य दिलवाने की आवश्यकता नहीं थी ऐसा अधिकतर लोगों का कहना था जो उन्होने फुसफुसा कर या बुदबुदा कर् कहा, ताकि आप सुन नहीं सके. संचालक की बात चली तो एक बात और है. इस कार्यक्रम में दो - दो संचालक रहते है. पहले सत्र का संचालक और दूसरे सत्र का संचालक. ऐसा लगता है जैसे पहले सत्र का संचालक दूसरे सत्र के संचालन की ट्रेनिंग ले रहा है. या टेस्ट मैच से पहले वन डे खेल रहा है.
हाँ, एक बात पर जोर की हंसी मेरे आस पास गूंजी थी. एक श्रोता ने मारवाडी में कहा- “यार ये सचदेव जी को जुबान की कब्जियत है क्‍या, बोलते हैं तो बात बीच में ही अटक जाती है.”
कि ये हर साल, बल्कि सोलह सालों से वही वही शेर, वही वही कवितायें कोट करते आ रहे है और इसलिए जब कवि हर साल बदलते रहते है तो संचालक हर साल वही क्यों रहता है.
चलिए ये तो अलग मसला है कि एक श्रोता सत्तन के संचालन को बेहतर बताता है और दूसरा उसे नौटंकीबाज बताता है., पर एक बार लोगों ने जरूर् कहा कि वे सुनील जोगी को और सुनना चाहते हैं. लोगों ने शोर भी मचाया, आवाज भी लगायी. पर संचालक जी ने श्रोताओं से कहा- आप मत भूलिए कि आप मेहमान है और हम मेजबान हैं हम जो परोसेंगे वही आपको खाना पडेगा. अरे साहब आपको कौन मना कर रहा है आप जरूर् परोसिये. पर मान लीजिए आपने किसी को घर पर खाने को बुलाया और मेहमान को पनीर की सब्जी जरा ज्यादा अच्छी लग गयी तो क्या आप कहेंगे कि हम मेजबान है जो परोस रहे है. खाईए. मेहमान जब् भगवान की तरह होते है तो उनका मान भी रखना पड़ता है. एक, सिर्फ एक कविता और सुनवा दी गई होती तो लोगों ने और कवियों को भी और ज्यादा ध्यान और प्रेम से सुना होता .
चलिए फुरसत थी. कुछ बातें हो गयी. एक अच्छे आयोजन के लिए आपको सिर्फ बधाई नही देता आपका शुक्रिया भी अदा करता हू. विदा लेता हूँ.
बसंत आर्य

1 टिप्पणी:

kavi surendra dube ने कहा…

http://kavisurendradube.blogspot.com/
bahu achchha likha hai aapne,mere blog ka link bhej rha hoon