27/8/07

रानी मुखर्जी साँवली है और रेखा तो एकदम काली

साँवली

यों तो मुहल्ले में कोई भी नई लड़की आये तो लड़कों में दस दिनों तक आहें भरा जाना अनिवार्य है. पर इस बार ऐसा कुछ नहीं हुआ. क्योंकि चम्पा साँवली था और साँवली लड़की में रूचि दिखा कर कोई भी अपनी घटिया पसन्द का प्रदर्शन नहीं करना चाहता था. हाँ, यह बात अलग है कि उसकी अनारो मौसी के साथ सिर्फ मैंने ही चाची का रिश्ता नहीं गाँठ लिया बल्कि पड़ोस के और भी बहुत से लोगों की बुआ , अम्मा , दादी , नानी और ना जाने क्या क्या हो गयी वे.
उसके साँवली होने के कारण अनारो चाची के घर में भी इस बात की चर्चा प्रायः चलती . चम्पा मुझ से कहती- अच्छा बासु, रेखा काली है न? मैं समर्थन में सिर हिला देता तो वह कहती- और रानी मुखर्जी?. मेरे हाँ कहते ही वह दौड़ती हुई सबको ची के पास बुला कर लाती और कहती - देखो, रानी मुखर्जी साँवली है और रेखा तो एकदम काली. फिर भी फिल्मों में काम करती है. पिछली बार ही टी.वी. पर उसकी फिल्म आयी थी. मै तो काली भी नहीं हूँ , साँवली हूँ.
ची कहती - अरे तो क्या तुम्हें कोई फिल्मों में काम करना है. पहले हाथ.....तभी कोई कह देता - रेखा की तो शादी भी नहीं हुई. हुई भी तो.......
फिर चम्पा की आंखों में उदासी के मोती झिलमिलाते . कभी गिर पडते . कभी दिल में अटक कर रह जाते. ची कहती - अरे मेरी बेटी के लिए चाँद सा दूल्हा आयेगाकोई हृदयहीन फिर कह बैठता - चाँद से दूल्हे की अम्मा अपने घर में नौकरानी भी गोरी देख कर रखती है.
फिर कई बरस बीते . मुझे कई जगह अप्लाई कर रिप्लाइ का इंतजार करते - करते दिल्ली में एक नौकरी मिल गई. पर चम्पा को अपनी जिन्दगी के लिफ़ाफ़े पर लिखने के लिए कोई भी पता नहीं मिला. कभी ची झुंझलाती - अरे राम जे भी तो काले थी. किसी ने उनसे कह दिया कि दिल्ली में शहनाज हुसैन रहती है. वह चम्पा को गोरी बना सकती है. वे मेरे पास आई और बोली - बासु बेटा अगली बार दिल्ली से आना तो शहनाज हुसैन से गोरी होने की दवाई लेते आना.दिल्ली जाकर मैंने चम्पा के बारे में बहुत सोचा और एक ही निष्कर्ष पर रूक - रूक गया. बहुत खूबसूरत मगर साँवली सी. मुझे बचपन में खेले गुड्डे गुडियों का खेल स्मृत हो आया और गुड्डे की जगह खुद की कल्पना कर रोमांच .
दिल्ली से वापस आते समय मैं जान बूझ कर गोरे पन की दवाई नहीं लाया.ची बोली - क्यों बासु बेटा , तुम्हें चम्पा की कोई फिक्र नहीं? तुम उसके हाथ पीले नहीं देखना चाहते न?
मैं झिझकते हुए कह बैठा - देखना क्यों नहीं चाहता , मगर इसके लिए उसे गोरी होने की क्या जरूरत है. मुझे तो वह साँवली ही.......सुनते ही ची का मुँह खुशी और आश्चर्य से खुला रह गया पर चम्पा परदे के पीछे शर्म से लाल हो गयी.

7 टिप्‍पणियां:

ghughutibasuti ने कहा…

एक अच्छी कहानी ।
घुघूती बासूती

बेनामी ने कहा…

तुम नीत्शे को क्या पढ़ोगे। रहने दो। नाक रगड़ने से नेत्र दोष नहीं मिटता।

dpkraj ने कहा…

bahut badhiyaa laghukathaa hai
deepak bhaaratdeep

रवीन्द्र प्रभात ने कहा…

भाई बसंत, किसी ने ठीक ही कहा है, कि - ज़िस्म की सुंदरता उस मृगमारिचिका की तरह है, जो छल, कपट और भ्रम का भान कराती हैज़वकि मन की सुंदरता वह पवित्र गंगाजल है जो अमृत का रसपान कराती है. मैं यदि बासु की जगह होता तो यही कहता, कि चंपा -
ख्वाबों की ताबीर तुम्हारी आँखों में है,
शोख जवां कश्मीर तुम्हारी आँखों मे है.
तुझमे है तासीर मोहब्बत की भीतर तक-
शायर ग़ालिब- मीर तुम्हारी आँखों मे है.
आपकी कहानी बार- बार पढ़ने योग्य है, साथ ही व्यंग्य की मिलावट कहानी के भीतर की सुंदरता का
एहसास करा रही है. इसमें थोड़ा और सुधार की गुंजाइश थी, फिर भी आप जो कहना चाहते थे, उसमे सफल रहे हैं.

Anita kumar ने कहा…

bahut badhiya laghukatha hai aur ending toh bahut hi sunder...hona bhi aise hi chaahiye tha ...asha kerti hun champa apne ghar khush hogi

Rama ने कहा…

बसन्त आर्य जी, आज आपके ब्लाग की कई रचनाएं पढ़ी बहुत अच्छा लिखते हैं आप....साधुवाद एवं नववर्ष की शुभकामनाएं..

डा. रमा द्विवेदी

सुनील उपाध्याय ने कहा…

बेहतरीन, मार्मिक विवरण।