6/8/07

एक लघुकथा में एक बड़ी कहानी

अंतिम इच्छा
जब तक उसकी बांहों में बल रहा , उसने मेहनत मशक्कत करने से कभी जी नहीं चुराया और हमेशा अपने दोनों बेटों की नाजो नेमत में लगा रहा. लेकिन जब उसी जवानी के जोश में बुढ़ापे का जंग लगना आरंभ हुआ तो बेटों को भी अंगूठा हीन एकलव्य् सदृश मां बाप की उपस्थिति दूध में पड़ी मक्खी की तरह खलने लगी. बूढ़े की आँखों में धूल झोंक कर जमीन जायदाद अपने हाथों में कर ली. दोनों भाईयों के आधे आधे हिस्से भी बंट गये. वृद्ध माँ बाप को खर्च भी दोनों ने आधा आधा बांट लिया. मगर पके आम सी जिस वय में प्यार की आवश्यकता पहले है पैसा साथ भी दे सकता है तो कहाँ तक ? एक दिन बूढ़ा कही जा रहा था. धूप की मार बरदाश्त नहीं हुई और चलते चलते ही.........
इधर शाम हो गयी पर बूढ़ा नहीं आया तो बुढ़िया की व्याकुलता बढ़ने लगी . बेटों को खोज खबर लेने को कहा तो जवाब मिला कि कोई दूध पीते बच्ची थोड़े ही है जो खोजने जायें. मगर जब संतोष नहीं हुआ , तो स्वयं निकल पड़ी. भीड़ देखकर एक जगह पता करना चाहा तो हैरान रह गयी. बूढ़ा मरा पड़ा था ”किसी ने गला घोंट दिया है.” ”हमें तो लगे है शराबी. नशा में है.” ”नहीं मर चुका है जी.”
जैसे लोग वैसी बदी. बुढ़िया से रहा न गया. ‘आप लोग परेशान मत होईए. ये मेरे पति हैं’ लोग सहानुभूति जताने लगे.’क्या दुर्गति हो गयी भले मानस की, बूढी माँ तेरा कोई बेटा नहीं है. क्रिया कर्म की व्यवस्था करो.’
तभी कही से दोनों बेटे भी आ गये. पर हाय! कोई कफन खरीदने को भी तैयार नहीं. एक अपनी खाली जेब की दुहाई दे रहा है तो दूसरा उसका भी काँच काटता है. ‘मरे पर खर्च करने को जरूरत क्या है?’
काफी चाय चूँ के बाद दोनो में समझौता हुआ तो जाकर कफन की व्यवस्था हुई. दो अन्य लोगों ने मिलकर कन्धा दे दिया. श्मशान पहुंच कर बाकी कार्य भी ठीक ढंग से सम्पन्न हो गया. लोगों के वापस लौटने का वक्त भी आ गया. पर बुढ़िया वैसे ही चिता की और निर् निमेष ताक रही थी. बेटों ने देखा तो झकझोर कर जगाया. “माँ...” बेटों को देख बुढिया के आगे फिर एक बार चौराहे की घटना एक एक कर नाच गयी.. उसके जी में आया वह उसे जोर जोर से गालियां देने लगे. ‘ कफनचोर कहीं के नहीं जाना तुम्हारे साथ.’
बेटों का सब्र टूटा, “बोलती क्यों नहीं माँ? चलो न घर को.”
वह बोलती हुई काँप गयी,”बेटा, अब एक ही आकांक्षा है . पैरों के बल श्मशान आ गयी हूँ तो नहीं चाहती चार लोगों के कंधे को फिर कष्ट हो बस.” बेटों के पास कोई जवाब नहीं था. उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि अब वे क्या कहें.

7 टिप्‍पणियां:

इष्ट देव सांकृत्यायन ने कहा…

मार्मिक लघुकथा है.

बेनामी ने कहा…

एक छोटी सी लघुकथा में बड़ी सी कहानी, किंतु अंत वेहद मार्मिक . यही एक कथाकर क़ी
सफलता क़ी पहली कसौटी होती है.निश्चित रूप से इस लघुकथा में एक वेहद संवेदनशील
कथाकार क़ी आपकी छवि पारिलक्षित हो रही है. आपने पूरी ईमानदारी के साथ सच कहने
का साहस किया है. आज अमूमन ऐसा हर जगह देखने को मिल जाता है, कि व्यक्ति अपने
खोखले आदर्श को जीवंत बनाए रखने हेतु अपने संस्कार की हीं तीलांजलि दे देता है.बहुत
बढ़िया, बधाईयाँ...आपकी लघुकथा पढ़कर मुझे मेरी ग़ज़ल के कुछ शेर याद आ गये-
जो शीशे का मकान रखता है, वही पत्थर की ज़ुबान रखता है/ गुम कर- करके परिंदों के पर,
बहोत उँची उड़ान रखता है/ है जो तहजीव से नहीं वाकिफ़, घर में गीता- क़ुरान रखता है/ अब
तो बेटा भी बाप की खातिर, घर के बाहर दालान रखता है...... रवीन्द्र प्रभात

Udan Tashtari ने कहा…

अति मार्मिक. क्या कहें....

Divine India ने कहा…

वृद्धा अवस्था की समस्या सुंदर रुप में निकल कर आई है… बहुत अच्छे!!!

सुनीता शानू ने कहा…

चर्चा में आज आपकी एक रचना नई पुरानी हलचल

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

मर्मस्पर्शी ...क्या दुर्गति होती है अपनी ही औलाद से ..

Unknown ने कहा…

Kalyugi bete