(फिर एक पुरानी डायरी से )
बडे भैया
लौट आओ अब
अपना भी गांव
कोई बुरा नही
बड्की भाभी के
पांवो की रुनझुन
बडे उदास है
तुम्हारी बिन
तुम्हे ही ढुंढते है
हर पल
हर दिन !
गांवभर के बच्चे
जवार भर की गाये
आंचल मे सहेजे
वह ठंडी हवाये
कर रही तुम्हारी प्रतीक्षा
लौट आओ अब !
हल वे अब भी
चडमडाते है
बैलो के श्वास तक
है बेआवाज
उनकी घंटियो का स्वर
पिछवारे के कटहल तक
जा जाकर लौट आता है !
और हाँ
मटर के खेत मे
कल जब पछिया की सिटकरी
जोर से गूंजी
तो दद्दू चिहूंक उठे
क्या बडका लौट आया है
लौट आओ भैया
अब लौट आओ तुम!
परसो ही गाडी से
छुट्की विदा हो जायेगी
छोड कर
अपने हसरतो के गांव को
हम उसे
पहुंचाने जायेंगे टिसन तक
तुम भी आना भैया
जरुर आना !
पराये महल लाख लुभाये
अपनी झोपडी तो
अपनी ही होती है !
30/12/09
25/12/09
बाद तुम्हारे विदा होकर
(कुछ यादे अनकही ही रह गयी जीवन मे -दोस्तो मै आपको यह बताना चाहूंगा कि यह रचना हमारे काँलेज के दिनों मे लिखी गयी थी)
बाद तुम्हारे विदा होकर
चले जाने के
नही रह पाउंगा दुखी
नही होऊँगा घडी घडी उदास
और भी बहुत कुछ है
जिसे पाया जा सकता है या
इसी तरह
की जा सकती है कोशिश
कोई कविता की किताब
या फिर
एक नई भाषा ही सिखूंगा
उन मजनूओ की भांति
क्यो फिरुंगा मारा मारा
दोस्तो को लिखूंगा खत
भले ही ,
नही लिखूंगा तेरी याद मे
कोई भी कविता,
पापा की कमीज पर
करूंगा इस्त्री
या गमलो मे डालूंगा पानी
खो जाऊंगा
किसी परीक्षा की तैयारी मे
मगर नही सुनून्गा
पुरानी हिन्दी फिल्मो के
दर्द भरे वो नगमे
बाद तुम्हारे विदा होकर
चले जाने के
बाद तुम्हारे विदा होकर
चले जाने के
नही रह पाउंगा दुखी
नही होऊँगा घडी घडी उदास
और भी बहुत कुछ है
जिसे पाया जा सकता है या
इसी तरह
की जा सकती है कोशिश
कोई कविता की किताब
या फिर
एक नई भाषा ही सिखूंगा
उन मजनूओ की भांति
क्यो फिरुंगा मारा मारा
दोस्तो को लिखूंगा खत
भले ही ,
नही लिखूंगा तेरी याद मे
कोई भी कविता,
पापा की कमीज पर
करूंगा इस्त्री
या गमलो मे डालूंगा पानी
खो जाऊंगा
किसी परीक्षा की तैयारी मे
मगर नही सुनून्गा
पुरानी हिन्दी फिल्मो के
दर्द भरे वो नगमे
बाद तुम्हारे विदा होकर
चले जाने के
30/7/09
हम एक राह के मुसाफिर है
कहीं अन्दर
बहुत अन्दर
खुद को तुझ में पाता हूँ
और तुम को खुद में
पर फिर भी जाने कौन सी
शीशे की दीवार है कहीं
कि न मैं तुम्हें छू पाता हूँ
और न तुम मुझे
हम एक ही राह के मुसाफिर है
पर एक राह के मुसाफिर
युगों-युगों से श्राप ग्रस्त है
कि वे एक दूसरे के साथ चलते हुए भी
एक दूसरे को नहीं पहचानते
क्योंकि उनकी नजरे एक दूसरे पर नहीं
दूर कही मंजिल पर होती है.
11/6/09
इंतजार है उस चिड़िया का
वो नन्हीं चिड़िया भी अजीब थी
हमारे छोटे से घर के
छोटे से बरामदे के
एक कोने में बना रही थी
अपना
छोटा सा घोंसला
बरसात शुरू होने के
बिल्कुल पहले
हम हैरान होते
बिना किसी कैलेंडर के
चिड़िया को कैसे
लग जाती है खबर
मानसून के आमद की ?
सुबह की पहली किरण फूटने से
शाम ढ़ल जाने तक
चोंच में दबा दबा कर लाती थी
सूखी घास के अनगिन तिनके
जाने कहाँ कहाँ से
और कितनी कितनी दूर से
पत्नी सफाई करते
बड़ा ध्यान रखती थी उस घोंसले का
और तारीफ करती थकती न थी
चिड़िया के हौसले का
कहती थी –कैसे लगी रहती है
दिन भर अपने काम में
शायद पत्नी देखती थी चिड़िया में
अपना ही अक्श
पड़ोसी कहते थे रोज
घोसले को हटाने की बाबत
कहते थे चिड़िया है तो
चिड़िया की तरह रहे
बाहर या किसी पेड़ पर बनाये
अपना घोंसला
ये क्या बात हुई
आज बरामदे में है
कल ड्राइंग रूम में आ जायेगी
आखिर
किसी भी चीज की हद होती है
उन्हीं दिनों हम ढूँढ़ रहे थे
एक नया घर
हमारी हिम्मत नहीं होती थी
कि कुछ भी ऐसा करें
कुछ ही दिनों बाद
हमने अपने
नये घर में प्रवेश किया
और अलविदा कहना पडा उस चिड़िया को
परंतु आज भी
इंतजार है उस चिड़िया का
जिसने नया घर ढ़ूँढ़ने में
हमारी बेहद मदद की
और शायद दुआयें भी.
हमारे छोटे से घर के
छोटे से बरामदे के
एक कोने में बना रही थी
अपना
छोटा सा घोंसला
बरसात शुरू होने के
बिल्कुल पहले
हम हैरान होते
बिना किसी कैलेंडर के
चिड़िया को कैसे
लग जाती है खबर
मानसून के आमद की ?
सुबह की पहली किरण फूटने से
शाम ढ़ल जाने तक
चोंच में दबा दबा कर लाती थी
सूखी घास के अनगिन तिनके
जाने कहाँ कहाँ से
और कितनी कितनी दूर से
पत्नी सफाई करते
बड़ा ध्यान रखती थी उस घोंसले का
और तारीफ करती थकती न थी
चिड़िया के हौसले का
कहती थी –कैसे लगी रहती है
दिन भर अपने काम में
शायद पत्नी देखती थी चिड़िया में
अपना ही अक्श
पड़ोसी कहते थे रोज
घोसले को हटाने की बाबत
कहते थे चिड़िया है तो
चिड़िया की तरह रहे
बाहर या किसी पेड़ पर बनाये
अपना घोंसला
ये क्या बात हुई
आज बरामदे में है
कल ड्राइंग रूम में आ जायेगी
आखिर
किसी भी चीज की हद होती है
उन्हीं दिनों हम ढूँढ़ रहे थे
एक नया घर
हमारी हिम्मत नहीं होती थी
कि कुछ भी ऐसा करें
कुछ ही दिनों बाद
हमने अपने
नये घर में प्रवेश किया
और अलविदा कहना पडा उस चिड़िया को
परंतु आज भी
इंतजार है उस चिड़िया का
जिसने नया घर ढ़ूँढ़ने में
हमारी बेहद मदद की
और शायद दुआयें भी.
4/6/09
प्रेम गली से गुजरो तो
एक अरसा बीत गया आप लोगों से मिले हुए. ये कहना भी कुछ सही नहीं है. बल्कि कहना चाहिए कि एक अरसा हो गया आप लोगों को मुझ से मिले हुए. आप लोगों से तो मैं मिलता ही रहता हूँ. एक मुक्तक से अभी अभी मुक्त हुआ हूँ तो इस बार वही आपके हवाले--
दिल को दिल तक जाने में एक जमाना लगता है
उन आँखों केअंदर मुझको एक मयखाना लगता है
कोई पागल , कोई मजनू , कोई दीवाना कहता है
प्रेम गली से जो गुजरो तो ये जुरमाना लगता है.
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