24/9/07

कविता पर क्रिकेट भारी है


ये वो है जो रिमोट पर कब्जा कर लेती हैं


दफ्तर से देवमणि पांडेय के साथ लौटते हुए चर्चगेट मे विनय पत्रिका वाले बोधिसत्व से मुलाकात हो गयी. उन्होने शिकायत की और कहा कि मेरा ब्लाग अच्छा है पर मै नियमित क्यो नही लिख रहा हूँ? मैने कहा कि कोशिश करूंगा.. फिर उन्होने बताया कि मुंबई मे हिन्दी के कुल जमा बारह ब्लागर है.पता नही बारह को वे जानते हैं या सचमुच सिर्फ बारह ही है. मै चाहूंगा कि बोधिसत्व बारह मुंबईया ब्लागरों की सूची मुझे और अन्य लोगो को भी उपलब्ध कराये.फिर उन्होने बताया कि पिछले दिनो मुंबई मे एक गुप्त ब्लागर मीट हुई जिसमे मुझे उन्होने इस लिए नही बुलाया क्योकि क्रिकेट मे ग्यारह खिलाडी ही होते है. मैने कहा चलिए ब्लागर मीट के बारे मे कुछ बाते कर ले तो बोले - अभी घर जाकर भारत पाकिस्तान का मैच देखूंगा. परिवार के साथ रहो तो बच्चों को भी अच्छा लगता है. इससे परिवार के प्रति उनके स्नेह का पता चला . अब ये निर्णय तो मै नही कर पाया कि परिवार के प्रति उनका स्नेह ज्यादा है या क्रिकेट के प्रति जूनून. पर यह ज्यादा अच्छा लगा कि हिन्दी के कवि लेखक जहाँ कविता कहानी के अलावा दुनिया मे किसी अन्य चीज का अस्तित्व ही नही मानते वही बोधिसत्व क्रिकेट जैसी चीजों मे भी अति रूचि रखते हैं उन्होंने वही सबवे के पास देवमणि को सहयाद्री रेस्तराँ मे चाय पिलाने का आदेश दिया और साथ मे कुछ खिलाने का भी. एक पंडित दूसरे पंडित से भोज कराने को कह रहा था और दोनो एक दूसरे की जेब हल्का करने को आमादा थे. बाद मे बोधि ने स्पष्ट किया कि अंधेरी से चर्चगेट के बेच मिलने पर चाय पानी का खर्चा देवमणि को उठाना है और अंधेरी से विरार के बीच बोधि खर्च उठायेंगे. उम्मीद है देवमणि आने वले समय मे अंधेरी की काफी यात्रायें करेंगे. मै तो सलाह दूंगा कि वे सीजन टिकट ही निकाल ले वर्ना उनका मामला भारत सरकार की तरह हमेशा घाटे मे रहेगा. बहरहाल घर आया तो पत्नी टी वी खोले क्रिकेट मे रमी हुई थी. वह क्रिकेट मैच के दौरान हमेशा रिमोट पर कब्जा कर लेती है. चाहे किसी मुशायरे या कवि सम्मेलन का प्रसारण किसी चैनल पे क्यो नही हो रहा हो. मै हमेशा तर्क देता हूँ कि मै कवि हूँ और इस हिसाब से अगर मुशायरे वगैरह का कार्यक्रम हो तो उस वक्त टी वी पर मेरा हक होना चाहिए क्योकि वह कोई क्रिकेटर होती तो जरूर उसे क्रिकेट देखने का हक होता. इस पर पत्नी बोलती है - दूसरों की शारती सुनने से मेरे लेखन पर दूसरों का प्रभाव पडने का खतरा है. इसलिए कविता पर हमेशा क्रिकेट भारी पडता है. फिर इस बार सीधे शाहरूख खान स्टेडियम मे अपने बेटे के साथ मौजूद थे और हर मौके पर तालियाँ बजा कर अपनी खुशी जाहिर कर रहे थे. पत्नी बोली - क्या कभी शाहरूख खान आपकी कविता सुनने आयेगा और अगर आ भी गया तो तालियाँ बजायेगा. मैने कहा आमिर खान ने जब किरण राव से शादी रचाई तो पंचगनी मे कवियों को बुलाया था. अच्छा पेमेंट किया था और काव्यानंद लिया था. पर पत्नी ने आमिर खान को सिरे से खारिज कर दिया कि जो आदमी अपनी पहली बीवी को बाय बाय कर दूसरी के साथ गुलछर्रे उडा रहा है उसकी तो बात ही क्या करनी. आदमी है तो शाहरूख . कभी किसी की ओर देखता तक नही. अब मेरी एक ही इच्छा है कि एक ऐसा कवि सम्मेलन हो जिसमे शाहरूख खान बतौर श्रोता आये और मेरी कवितायें सुन कर तालियाँ बजायें . खैर जब इंडिया ने आखिरी छक्का लगाया उससे पहले उसने डर के मारे टी वी ही बन्द कर दिया. मैने पूछा टी वी क्यो बन्द कर दिया. पत्नी बोली - मुझे लगा इंडिया शायद हार न जाये. मेरी तो जान ही निकल जाती. खैर इंडिया टीम को बहुत बहुत धन्यवाद . उसने मुझे विधुर होने से बचा लिया.


16/9/07

एक सपनो का महल हो गर्ल्स होस्टल के सीधे सामने

खिड़कियां

मेहरा साहब उस दिन विमान मे बैठे बैठे किसी फिल्मी पत्रिका मे एक अभिनेता के सपनों के घर के बारे मे पढकर चौंक गये थे. चौंकना स्वाभाविक था, क्योकि वह अपने सपनों का महल किसी सुरम्य वादी या स्वर्ग मे नही बसाना चाहता था. वह तो बस इतना चाहता था कि उसका घर लडकियों के किसी कालेज के होस्टल के सामने हो और उसी मे वह अपनी पूरी जिन्दगी हंसी खुशी गुजार दे.

तब उन्हे ख्याल आया था कि उनका स्वयं का घर भी तो एक ऐसे ही रमणीय स्थल पर है. दिन भर सामने से एक पर एक छप्पन छूरी लोगों के दिलों मे बहत्तर पेंच पैदा करती गुजरती रहती है. फिर दूसरी मंजिल के सबसे पश्चिम वाले कमरे की खिडकी तो होस्टल के शयन कक्ष के ठीक सामने खुलती है.अगर शयन कक्ष की खिडकियाँ भी खुली हो तब तो क्या क्या देखने को नही मिलता है. और हाय! गर्मियों मे तो मेहरा साहब कई कई रातें जागकर गुजार किया करते थे. लडकियाँ ठंडी हवा के लिए खिडकी खुली छोड कर सोती थी और भूले से अगर परदा भी नही खिंचा होता तो रात को उनके शरारती कपडे कहाँ कहाँ से फिसल जाते कि तौबा तौबा.

वैसे मेहरा साहब तो समय के साथ साथ बूढे होते चले गये, पर लडकियाँ कभी बूढी नही हुई. हर साल नई-नई और खूबसूरत लडकियाँ आ जाती. उनके जमाने मे तो इतनी लाजवाब लडकियाँ होती भी नही थी, खैर..... अब तो सदा व्यापार के सिलसिले मे बाहर रहना होता है , तो भला ऐसे मौके कहाँ? लेकिन अचानक उन्हे अपने दोनों बेटों की याद आई, वे? वे तो.........?

वे उसी शाम उस कमरे मे गये. शयन कक्ष की खिडकियाँ पूर्ववत खुली थी. उन्होने गौर से देखा, कोई लडकी अपने कपडे बदल रही थी. उन्होने शर्म से आंखे बन्द कर ली.

उसी क्षण उन्होने यह भी निश्चय कर लिया कि उन्हे छात्रावास के वार्डन से मिलना चाहिए.

दूसरी ही सुबह पहुंच भी गये और कहने लगे,समझ मे नही आता आपके यहाँ की लडकियाँ कितनी बेशरम है? अन्धे तक को भी दिखाई पडता है कि पहाड जैसा मकान सामने खडा है , फिर भी कमरे की खिडकियाँ होले यो कपडे बदलती रहती है कि...........बेशरम.

युवा वार्डन घडी भर को चुप रही. फिर बोली, अरे, मेहरा साहब, लडकियाँ तो लडकियाँ ! नादान है, भोली है, यों तो परदे खींच ही देती होंगी, पर उम्र ही ऐसी है कि दुपट्टा भी सम्भाले नही सम्भलता है. फिर खिडकी तो खिडकी है. और फिर अगर आपको इनकी शर्म का इतना ख्याल है तो आप अपनी खिडकी बन्द करके भी तो उन्हे बेशरम होने से बचा सकते हैं

मेहरा साहब के पास अब कोई जवाब नही था.

9/9/07

वो हमारे गांव की पगडडी थी ये हमारे महानगर की सड़के है

वो हमारा गाँव था
और वे थी हमारे गाँव की सडकें
सडकें भी कहाँ?
पगडंडियाँ!
टूटी फ़ूटी, उबर ख़ाबर
पर उन पर चल कर हम
न जाने कहाँ कहाँ पहुँच जाते थे
दोस्तों , रिश्तेदारो , नातेदारों
और न जाने किनके किनके घरों तक
ये हमारा महानगर है
यहाँ की सडकें बहुत सुन्दर है
चौडी चौडी, एक दम चिकनी
मगर इन पर चल कर
मैं कहाँ जाउँ?