20/11/07

त्वरित टिप्पणियों की टकसाल: हिन्दी कवि सम्मेलन

टिप्पणियों के बेताज बादशाह: श्याम ज्वालामुखी

ब्लाग पर टिप्पणियाँ देने का चलन आम है. मेरी जानकारी में हिन्दी ब्लाग पर टिप्पणियाँ देने मे उड़न तश्तरी वाले कनाडियन भारतीय समीर लाल जी का कोई तोड़ नहीं है. ब्लागर दोस्तों से टिप्पणियों के सन्दर्भ में बात चीत हो तो कई तो अक्सर ये सोंचते दिखते हैं कि समीर जी ने कोई बन्दा रखा हुआ है जो उनकी ओर से तुरत टिप्पणियाँ पोस्ट करता रहता है वर्ना सभी ब्लाग पर समीर जी की पहली टिप्पणी का जादू समझ के बाहर है. लोग समझ नहीं पाते हैं कि समीर जी अगर दिन रात ब्लाग पढते और टिप्पणियाँ ही करते रहते हैं तो वे बाकी काम कब करते होंगे.पर मेरा मानना है कि महान लोगों के काम करने का ढंग भी जुदा होता है. मुझे एक शेर याद आता है

कोई चार दिन की जिन्दगी मे सौ काम करता है
किसी की सौ बरस के जिन्दगी में कुछ नही होता.

मेरी समझ से यही समीर भाई का राज है.

बहरहाल मैं हिन्दी कवि सम्मेलनों की बात करना चाह रहा था. कवि सम्मेलन मे कविता तो महत्वपूर्ण होती ही है. पर श्रोताओं का प्रतिसाद जिस एक चीज पर सबसे ज्यादा मिलती है वह है कवि या संचालक द्वारा कवि सम्मेलन के दौरान के गई त्वरित टिप्पणियाँ.
त्वरित टिप्पणियाँ देने में कई मंचीय हिन्दी कवियों का कोई जवाब नहीं है. वर्तमान में सत्य नारायण सत्तन ,
अशोक चक्रधर , सुभाष काबरा ,अरुण जैमिनी ,कुमार विश्वास, किरण जोशी , सुनील जोगी आदि हिन्दी मंच के उन विरल विभूतियों में से हैं जो घटित हो रही घटनाओं पर अपनी त्वरित टिप्पणियों से श्रोता समूह पर एक जादू सा करते हैं और उन्हें आह्लादित कर देते हैं। स्वर्गीय श्याम तो इसके मास्टर ब्लास्टर थे और टिप्पणियों की वो बारिश करते थे कि लोग गिनती ही नही सुध बुध सब भूल जाते थे.

एक बारमेरी शादी हुई
किसी कवि का एक जुमला जिसे देश के कई कवि ले उड़े वो है”’एक बार’ मेरी शादी हुई” इस जुमले में ‘एक बार’ का जवाब नहीं है. श्रोता बरबस पूछ बैठते हैं –एक बार? और कवि कहता है – जी हाँ आप लोगों की कृपा से अभी तक एक बार ही हुई है.

माइक वाले को एडवांस में पेमेंट
अकसर कवि सम्मेलन मे माइक सिस्टम खराब हो जाता है. ऐसी स्थिति मे एक जुमला लोगों को बहुत गुदगुदाता है. कवि कहता है- लगता है आयोजकों ने माइक वाले को एडवांस में पेमेंट कर दिया है. श्रोताओं क यह टिप्पणी अनायास ही गुदगुदा देती है.

माईक पर गणेश जी खड़े हैं
दिल्ली के अरुण जैमिनी ग्वालियर निवासी प्रदीप चौबे के स्थूल शरीर पर छींटाकसी करते हुए अकसर कहते हैं- ऐसा लग रहा है माएक पर गणेश जी खडे हैं और प्रदीप चौबे आनन फानन अरूण जमिनी को लक्षित करते हुए कहते हैं – बड़े माईक पर गणेश जी खड़े हैं और छोटी माइक पर उनकी सवारी मौजूद है. इस पर श्रोता अनायास खिलखिला उठता है.

कविता वोई और कवि कोई
कवि सम्मेलन की वर्तमान अराजकता पर जिसमें जिसको मौका मिले जिसकी भी कविता हो बिना नाम तक लिए कवि पढ देता है तालियाँ लूट कर ले जात है टिप्पणी करते हुए व्यक्तिगत बातचीत मे श्याम ज्वालामुखी कहा करते थे. पहले के जमाने मे कवि सम्मेलन में वोई कवि और वोई कविता हुआ करती थी और अब कविता वोई और कवि कोई.

बिहारी आदमी की ताकत
पिछले दिनों माँ सरस्वती की कृपा से एक ऐसी ही टिप्पणी मेरे मुँह से भी निकली. हुआ यों के दादर में एक कवि सम्मेलन था. युगराज जैन बतौर संचालक निमंत्रित थे. कवि गण थे- महेश दूबे, सुरेश मिश्रा, अनिल मिश्र, मोतीलाल श्रीवास्तव, शिखा पांडेय और मैं खुद. युगराज भाई ट्रैफिक में कहीं फंसे हुए थे और आयोजक कार्यक्रम शुरू करने को आमादा हो रहे थे. आखिरकार सुरेश मिश्र ने कार्यक्रम का संचालन शुरू किया और मोतीलालजी को काव्यपाठ के लिए खड़ा कर दिया. उनके काव्यपाठ के उपरांत मुझे खड़ा करने से पहले मेरे राज्य बिहार की काफी ‘तारीफ’ की और यहाँ तक कहा कि जो तालियाँ नहीं बजायेगा उस श्रोता का अगला जन्म भी बिहार में होगा. पर इसी बीच मूल संचालक युगराज जैन पधार चुके थे. सुरेश मिश्रा ने युगराज जी को मंच पर बुलाया और संचालन का भार उन्हे सौपते हुए खुद कवियों के बीच स्थापित हो गये. सामने श्रोताओं के बीच महाराष्ट्र के पूर्व गृह राज्य मंत्री कृपा शंकर सिंह और वरिष्ट पत्रकार नन्द किशोर नौटियाल भी मौजूद थे. मैं माईक पर आया और पहला ही वाक्य मेरी कंढ से फूटा- आपको बिहारी आदमी की ताकत का अन्दाजा इसी से हो गया होगा कि उसके आने से पहले ही आदमी अपनी गद्दी छोड कर दूसरे को सौंप देता है. श्रोताओं की वह हंसी और उनके हाथ की वो तालियाँ .अहा हा क्या बताउँ ? मैं देर तक उस नशे मे रहा.

2/11/07

रोजगार ढूंढना भी एक रोजगार है

आजकल बेरोजगारीका यह आलम है कि रोजगार दफ्तर भी अब बेरोजगार पडॆ हैं . बल्कि लेटे - लेटेकराह रहे हैं. पहले एक - आध बेरोजगार कहीं से घूमता - भटकता दफ्तर मे आ जाता था कि मुझे रोजगार दो. तो दफ्तर वाले उसे समझाते थे कि फलाँ फार्म भर दो, ढिकाँ जगह जमा करा दो. फिर जब तुम्हे खबर देंगे तो वहाँ जाकर ज्वायन कर लेना . पर धीरे - धीरेलोगो को पता लग गया कि फलाँ फार्म भरकर ढिकाँ जगह जमा कर देने भर से कुछ होना जाना नही है तो लोगो ने उस मन्दिर की राह जाकर सिर पटकना बन्द कर दिया.


बड़े बूढे कहते हैं पहले रोजगारदफ्तर वाले गली - गलीघूमते थेऔर ढूँढते रहते थे कि किसे रोजगार दिया जाये ? कोई जरा सा योग्य मानुस दिखा नहीं कि उसे पकड़ कर बिठा देते थे कि भैयायहाँनौकरी करनी पड़ेगीऔर आदमी मजबूरी मे काम करने लगता था. पर अब वो दिन हवा हुए और नौकरी देने वाले पकड़ पकड़ करलोगों को स्वैच्छिक अवकाश पर जाने के लिए मना रहे हैं. और जो नहीं मान रहे उन्हें धक्के देकर बाहर कर रहे हैं. जो लोग कम्प्यूटर बाबा की लाठी टेकते हुए जर्मनी और अमेरीका एक्स्पोर्ट हो गये थे , वे भी वापस आकर देश मे चौथाई तनखाह पर रोजगार तलाश रहे हैं


देश के प्रधान मंत्री ने किसी दिन एक फाइव स्टार रिसोर्ट मे बैढकर चिंतन कियातो बेरोजगारी की हालतदेखकरवे द्रवित हो गये .जी मे तो आया कि फटाफ़ट पूर्व प्रधान मंत्रियों की तर्ज पर दो - चार कवितायें लिख डालें . पर कुछ सोच कर रह गये और सीधे यही घोषणाकर दी कि सरकार एक करोड़ लोगो को रोजगार देगी. बाद मे लोगो ने पूछा कि सरकार के उस वायदे का क्या हुआ? इस बात पर सरकार भन्ना गई. उसका भन्नाना भे स्वाभाविक है. अब अकेली सरकार क्या क्या करे बेचारी.


वह नदियों को आपस मे जोडे या लोगों को. वह समन्दर के अन्दर सेतु की रक्षा करे या अपनी. वह बैंकों की ब्याज दर घटाने मे समय लगाये या बेरोजगारी घटाये. वह अयोध्या मे मन्दिरबनाये. ये आपके भुक्खड पेट की आग बुझाये. वह करोड पति क्रिकेट खिलाडियों को टैक्स मे रियायत दे या पिद्दी जनता की कोटरो मे धंसी आँखे निहारे. अब समस्याओं पर समस्यायेंहै . पाकिस्तान है . कश्मीर है. बाँगला देशी है. नये राज्यो की डिमांड है.परमाणु समझौते हैं.


गजब के हो तुम भी. यहाँ हम कितनी बड़ी बड़ी समस्याओं से पंजा लडा रहे हैं और तुम हो कि आ गये कमीज ऊपर उठाये अपना पिचका पेट दिखाने. हम यहाँराज्यों की सरकारें गिराने - बनाने मे लगे हुए है और तुम आ गये मुँह उठाये कि खाना चाहिए.


वहाँ हम कुर्सी के इतनी बडी लड़ाई लड़ रहे हैं और एक तुमहो कि जिन्दगीकी जंग से ही नही निकल पा रहे हो.. लानत है तुम पर.वर्ल्ड वार के बजायघर वार की चिंता मे डूबउतरा रहे हो. तुम क्या अकेले हो,जो बेरोजगार हो? चीन अमेरीका , जापान कहाँनहीं है बेरोजगारी? लन्दन तक की हर दूसरी दुकान किरायेदार के लिए खाली पडी है मुँह बाये हुए.


अरे काम नही है तो काम ढूँढो. सरकार अगर लोगों को काम देने लगी तो खुद क्या काम करेगी? अरे जो वीर पुरूष हैं, उन्हे क्या काम की कमी है? लाख बेरोजगारी है पर करने वालों को काम की कमी है क्या?. आँखखोल कर देखो , पढे लिखे होने का इतना तो उपयोग करो. अनपढ किसानों तक को देखो, कुछ न कुछ करते ही रहते है. कपास गन्ना बोते है और उससे फुर्सतमिलती है तो कर्ज लेने के लिए साहूकारों के चक्कर लगातेहैं. इन सबसे समय़ मिलता है तो सल्फास वगैरह का स्वाद चखते है और आत्म हत्या भी करते रहते हैं.


जिनके दिल मे हिम्मत होती है, वे मन्दी का रोना नही रोते. अकल वाले कैसे भी पैसाबना लेते हैं. मुफत मे मिली किडनी भी हजारों मे सेल करते है. इसलिए बेरोजगारी का रोना मत रो प्यारे क्योंकि रोजगार ढूँढना भी रोजगार है. इसीलिए जोर से लगे रहो.

16/10/07

किस्सा प्याज और अपनी लुटी हुई लाज का


पत्नी बोली- तुम क्या कमाते हो

असल में तो पडोस का शर्मा कमाता है

उसके बीवी रोज

एक किलो प्याज खरीदती है

और सारा परिवार खाता है

तुमसे तो कुछ लाने को बोलूँ

तो आंखें लाल पीली होने लगती है

और प्याज के नाम पर

पतलून ढीली होने लगती है.

मैने कहा- फिजूल के खर्चे मत किया कर

और प्याज के ज्यादा चर्चे मत किया कर

ये चीज ही ऐसी धांसू है

कि पहले तो खाते वक्त आती थी

अब भाव सुन कर ही आंखों में आंसू है

क्या बताउँ दफ्तर मे चपरासी तक

बास के साथ लंच खाता है

क्योंकि अपनी टिफिन से निकाल कर

प्याज तो वही खिलाता है

अब तो लगता है

दूल्हा दहेज मे प्याज ही मांगेगा

और गले में नोटों की जगह

प्याज की माला टांगेगा

लडकी का पिता लडके के आगे

सिर के पगडी के बजाय

प्याज ही रखेगा

और मेरी लाज रख लीजिए के बजाय कहेगा

जी मेरा प्याज रख लीजिए

सास बहू को ताना मारेगी

अरे वो तो किस्मत ही खराब थी

जो यहाँ पे रिश्ता किया

वर्ना हमने तो अच्छे अच्छे प्याज वाले को

घर मे घुसने तक नही दिया

बडे बडे नेता खुद को

सिक्कों के बजाय प्याज से तुलवायेंगे

और अच्छे अच्छे कवि

प्याज पर कवितायें सुनायेंगे.

राजनीतिक पार्टियाँ अपना चुनाव चिह्न

प्याज रखेगी

और घर घर जाकर

प्याज बांटने वाली पार्टी ही

सत्ता का स्वाद चखेगी.

क्योकि प्याज की मारी जनता कहेगी

न हमे राम राज चाहिए

न कृष्ण राज चाहिए

हमे तो सिर्फ सस्ता प्याज चाहिए.

6/10/07

ये है मुंबई मेरी जान : जाने पहचाने अनजाने लोग

सो‍चता हूं और सं‍भव है कि शीर्षक पढ कर आप भी सों‍चने लगे़‍ कि जो जाने पहचाने हैं वे अनजाने कैसे हो सकते हैं‍. और जो अनजाने है वो जाने पहचाने कैसे हो सकते हैं. कबीर की उलटवांसी जैसी लगती है न? पर मुम्बई शहर ही उलटवासियो‍ का है.
सुबह सुबह उठता हूं. प्रातः भ्रमण के लिए निकलता हूं तो सबसे पहले बिल्डि‍न्ग के वाचमैन दिख जाते हैं . कोई लोगो की कार धुलाई कर रहा होता है तो कोई मोटर से पानी चढा रहा होता है. इन्हे पह्चानता हूं पर इनके बारे मे कुछ जानता नही हूं. ये कहाँ से आये हैं , कहाँ रहते हैं . कैसे खाते पीते हैं, कैसे जीते हैं. कुछ भी तो नहीं जानता. बाहर निकलते ही सडक पर एक आदमी दिखता है. कुत्तों को बिस्किट खिला रहा होता है. कुत्तों को भी पहचानता हूँ और बिस्किट खिलाने वाले सज्जन को भी. पर उन्हें जानता नहीं हूँ. एक लडकी हाथ में मिनरल वाटर की बोतल लिए दौडती रहती है. शायद किसी मैराथन में भाग लेना हो. पर उसे भी नही जानता. सुबह दफतर के लिए निकलता हूँ तो प्लेटफार्म पर कितने लडके और लडकियाँ दिखते हैं . एक दूसरे का इंतजार करते , गपियाते, बतियाते. किनका किनसे कौन सा रिश्ता है ये पता है . उन्हे घूरते बूढों को भी पहचानता हूँ . ये भी पता है कि इन भूतपूर्व जवानों के भी घूरने के अपने जोडे फिक्स हैं. पर इनमे से किसी को भी मैं कहाँ जानता हूँ. यही हाल दफ्तर और दफ्तर के बाहर है. सैकडों लोगों को पहचानता हूँ कि ये हमारे दफ्तर में है. पान की दुकान पर निश्चित समय पर आकर पान खाने वाले उस भाई को पहचानता हूँ. आंख बन्द कर पूरी शिद्दत से सिगरेट पीने वाली लडकी को भी पहचानता हूँ ,पर इनमे से किसी को भी कहाँ जानता हूँ? न ही जानने की कोशिश करता हूँ. और ब्लाग की दुनिया के कितने ही लोग हैं जिन्हें अच्छी तरह जानता हूँ पर उन्हे पहचानता नही हूँ. है न ये अजीब बात? पर इसी को कहते हैं कि ये है मुम्बई मेरी जान!

24/9/07

कविता पर क्रिकेट भारी है


ये वो है जो रिमोट पर कब्जा कर लेती हैं


दफ्तर से देवमणि पांडेय के साथ लौटते हुए चर्चगेट मे विनय पत्रिका वाले बोधिसत्व से मुलाकात हो गयी. उन्होने शिकायत की और कहा कि मेरा ब्लाग अच्छा है पर मै नियमित क्यो नही लिख रहा हूँ? मैने कहा कि कोशिश करूंगा.. फिर उन्होने बताया कि मुंबई मे हिन्दी के कुल जमा बारह ब्लागर है.पता नही बारह को वे जानते हैं या सचमुच सिर्फ बारह ही है. मै चाहूंगा कि बोधिसत्व बारह मुंबईया ब्लागरों की सूची मुझे और अन्य लोगो को भी उपलब्ध कराये.फिर उन्होने बताया कि पिछले दिनो मुंबई मे एक गुप्त ब्लागर मीट हुई जिसमे मुझे उन्होने इस लिए नही बुलाया क्योकि क्रिकेट मे ग्यारह खिलाडी ही होते है. मैने कहा चलिए ब्लागर मीट के बारे मे कुछ बाते कर ले तो बोले - अभी घर जाकर भारत पाकिस्तान का मैच देखूंगा. परिवार के साथ रहो तो बच्चों को भी अच्छा लगता है. इससे परिवार के प्रति उनके स्नेह का पता चला . अब ये निर्णय तो मै नही कर पाया कि परिवार के प्रति उनका स्नेह ज्यादा है या क्रिकेट के प्रति जूनून. पर यह ज्यादा अच्छा लगा कि हिन्दी के कवि लेखक जहाँ कविता कहानी के अलावा दुनिया मे किसी अन्य चीज का अस्तित्व ही नही मानते वही बोधिसत्व क्रिकेट जैसी चीजों मे भी अति रूचि रखते हैं उन्होंने वही सबवे के पास देवमणि को सहयाद्री रेस्तराँ मे चाय पिलाने का आदेश दिया और साथ मे कुछ खिलाने का भी. एक पंडित दूसरे पंडित से भोज कराने को कह रहा था और दोनो एक दूसरे की जेब हल्का करने को आमादा थे. बाद मे बोधि ने स्पष्ट किया कि अंधेरी से चर्चगेट के बेच मिलने पर चाय पानी का खर्चा देवमणि को उठाना है और अंधेरी से विरार के बीच बोधि खर्च उठायेंगे. उम्मीद है देवमणि आने वले समय मे अंधेरी की काफी यात्रायें करेंगे. मै तो सलाह दूंगा कि वे सीजन टिकट ही निकाल ले वर्ना उनका मामला भारत सरकार की तरह हमेशा घाटे मे रहेगा. बहरहाल घर आया तो पत्नी टी वी खोले क्रिकेट मे रमी हुई थी. वह क्रिकेट मैच के दौरान हमेशा रिमोट पर कब्जा कर लेती है. चाहे किसी मुशायरे या कवि सम्मेलन का प्रसारण किसी चैनल पे क्यो नही हो रहा हो. मै हमेशा तर्क देता हूँ कि मै कवि हूँ और इस हिसाब से अगर मुशायरे वगैरह का कार्यक्रम हो तो उस वक्त टी वी पर मेरा हक होना चाहिए क्योकि वह कोई क्रिकेटर होती तो जरूर उसे क्रिकेट देखने का हक होता. इस पर पत्नी बोलती है - दूसरों की शारती सुनने से मेरे लेखन पर दूसरों का प्रभाव पडने का खतरा है. इसलिए कविता पर हमेशा क्रिकेट भारी पडता है. फिर इस बार सीधे शाहरूख खान स्टेडियम मे अपने बेटे के साथ मौजूद थे और हर मौके पर तालियाँ बजा कर अपनी खुशी जाहिर कर रहे थे. पत्नी बोली - क्या कभी शाहरूख खान आपकी कविता सुनने आयेगा और अगर आ भी गया तो तालियाँ बजायेगा. मैने कहा आमिर खान ने जब किरण राव से शादी रचाई तो पंचगनी मे कवियों को बुलाया था. अच्छा पेमेंट किया था और काव्यानंद लिया था. पर पत्नी ने आमिर खान को सिरे से खारिज कर दिया कि जो आदमी अपनी पहली बीवी को बाय बाय कर दूसरी के साथ गुलछर्रे उडा रहा है उसकी तो बात ही क्या करनी. आदमी है तो शाहरूख . कभी किसी की ओर देखता तक नही. अब मेरी एक ही इच्छा है कि एक ऐसा कवि सम्मेलन हो जिसमे शाहरूख खान बतौर श्रोता आये और मेरी कवितायें सुन कर तालियाँ बजायें . खैर जब इंडिया ने आखिरी छक्का लगाया उससे पहले उसने डर के मारे टी वी ही बन्द कर दिया. मैने पूछा टी वी क्यो बन्द कर दिया. पत्नी बोली - मुझे लगा इंडिया शायद हार न जाये. मेरी तो जान ही निकल जाती. खैर इंडिया टीम को बहुत बहुत धन्यवाद . उसने मुझे विधुर होने से बचा लिया.


16/9/07

एक सपनो का महल हो गर्ल्स होस्टल के सीधे सामने

खिड़कियां

मेहरा साहब उस दिन विमान मे बैठे बैठे किसी फिल्मी पत्रिका मे एक अभिनेता के सपनों के घर के बारे मे पढकर चौंक गये थे. चौंकना स्वाभाविक था, क्योकि वह अपने सपनों का महल किसी सुरम्य वादी या स्वर्ग मे नही बसाना चाहता था. वह तो बस इतना चाहता था कि उसका घर लडकियों के किसी कालेज के होस्टल के सामने हो और उसी मे वह अपनी पूरी जिन्दगी हंसी खुशी गुजार दे.

तब उन्हे ख्याल आया था कि उनका स्वयं का घर भी तो एक ऐसे ही रमणीय स्थल पर है. दिन भर सामने से एक पर एक छप्पन छूरी लोगों के दिलों मे बहत्तर पेंच पैदा करती गुजरती रहती है. फिर दूसरी मंजिल के सबसे पश्चिम वाले कमरे की खिडकी तो होस्टल के शयन कक्ष के ठीक सामने खुलती है.अगर शयन कक्ष की खिडकियाँ भी खुली हो तब तो क्या क्या देखने को नही मिलता है. और हाय! गर्मियों मे तो मेहरा साहब कई कई रातें जागकर गुजार किया करते थे. लडकियाँ ठंडी हवा के लिए खिडकी खुली छोड कर सोती थी और भूले से अगर परदा भी नही खिंचा होता तो रात को उनके शरारती कपडे कहाँ कहाँ से फिसल जाते कि तौबा तौबा.

वैसे मेहरा साहब तो समय के साथ साथ बूढे होते चले गये, पर लडकियाँ कभी बूढी नही हुई. हर साल नई-नई और खूबसूरत लडकियाँ आ जाती. उनके जमाने मे तो इतनी लाजवाब लडकियाँ होती भी नही थी, खैर..... अब तो सदा व्यापार के सिलसिले मे बाहर रहना होता है , तो भला ऐसे मौके कहाँ? लेकिन अचानक उन्हे अपने दोनों बेटों की याद आई, वे? वे तो.........?

वे उसी शाम उस कमरे मे गये. शयन कक्ष की खिडकियाँ पूर्ववत खुली थी. उन्होने गौर से देखा, कोई लडकी अपने कपडे बदल रही थी. उन्होने शर्म से आंखे बन्द कर ली.

उसी क्षण उन्होने यह भी निश्चय कर लिया कि उन्हे छात्रावास के वार्डन से मिलना चाहिए.

दूसरी ही सुबह पहुंच भी गये और कहने लगे,समझ मे नही आता आपके यहाँ की लडकियाँ कितनी बेशरम है? अन्धे तक को भी दिखाई पडता है कि पहाड जैसा मकान सामने खडा है , फिर भी कमरे की खिडकियाँ होले यो कपडे बदलती रहती है कि...........बेशरम.

युवा वार्डन घडी भर को चुप रही. फिर बोली, अरे, मेहरा साहब, लडकियाँ तो लडकियाँ ! नादान है, भोली है, यों तो परदे खींच ही देती होंगी, पर उम्र ही ऐसी है कि दुपट्टा भी सम्भाले नही सम्भलता है. फिर खिडकी तो खिडकी है. और फिर अगर आपको इनकी शर्म का इतना ख्याल है तो आप अपनी खिडकी बन्द करके भी तो उन्हे बेशरम होने से बचा सकते हैं

मेहरा साहब के पास अब कोई जवाब नही था.

9/9/07

वो हमारे गांव की पगडडी थी ये हमारे महानगर की सड़के है

वो हमारा गाँव था
और वे थी हमारे गाँव की सडकें
सडकें भी कहाँ?
पगडंडियाँ!
टूटी फ़ूटी, उबर ख़ाबर
पर उन पर चल कर हम
न जाने कहाँ कहाँ पहुँच जाते थे
दोस्तों , रिश्तेदारो , नातेदारों
और न जाने किनके किनके घरों तक
ये हमारा महानगर है
यहाँ की सडकें बहुत सुन्दर है
चौडी चौडी, एक दम चिकनी
मगर इन पर चल कर
मैं कहाँ जाउँ?

30/8/07

आज ना छोड़ेंगे

आज ना छोड़ेंगे



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बाये से है. राकेश जोशी, देवमणि पांडेय ,यूनूस खान्, देवमणि पांडेय, महेश दूबे, महेन्द्र मोदी, बसंत आर्य,वीनू महेन्द्र और बैठी है कांचनप्रकाश और कुसुम जोशी.


मौका होली का था.और साल 2007. होलीके लिए विशेष प्रोग्राम की कल्पना की थी विविध भारती मुम्बई के केंन्द्र् निदेशकमहेन्द्र मोदी जी ने और जोश था राकेश जोशी जी का. जब होली में सब यही कहते हैं किआज ना छोड़ेंगे तो भला रेडियो वाले कवियों को कैसे छोड़ सकते थे. रिकार्डिंग के लिएबुलाया गया मुम्बई के ही छै कवियों को. कवि गण थे बहुत भारी इसीलिए सोच समझ कर दीगई थी कार्यक्रम के संचालन की जिम्मेदारी . और वो दी गई देवमणि पांडेय को. कवि गणथे- सर्दी खाँसी न मलेरिया हुआ से प्रसिद्धि पाने वाले वीनू महेन्द्र, बनारस केलोटे की तरह मुम्बई में मौजूद सभी कवियों में मोटे महेश दूबे साहब. जिन्हे उनकेगोरेगाँव् फर्निचर से उठवाया गया था, जहाँ दिन भर बैठ कर वे भगवान का मन्दिर बेचाकरते हैं. जब ग्राहक दुकान में नहीं होते उस वक्त वे कविताये लिखते रहते हैं अगरकविताय़ें भी नहीं लिखना हो पाता तो वे बाल ठाकरें जी के हिन्दी अख़बार दोपहर कासामनाके पाठकों के सवालों से रू ब रू होते हैं और डाईरेक्ट ऐक्शनलेते है जो किउनके कॉलम का नाम है. इस बात से उनकी प्रसिद्धि और बढी है कि वे अब बाल ठाकरे केबाद दूसरे शख्स हैं जो डाएरेक्ट ऐकशन लेते है.. उन्हें ज्यादा कमाई कविता से होतीहै या दुकान से ये मुम्बई के सारे हास्य कवियों की उत्सुकता का विषय है. अम्बरनाथसे दौड़े हुए आये थे दिनेश बाबरा जिसके बारे में मुम्बई के कवियों का ये मानना है किपाँच फिट के उसके शरीर में हर अंग में दिमाग है और इंतना ज्यादा दिमाग होने केबावजूद वो बददिमाग़ नहीं है. विनम्र बहुत है और सबसे झुक कर मिलता है और मिलकर तनतानहीं है. इसीलिए लोग कहते हैं कि बहुत जल्द वो कॉलेज की नौकरी छोड़ेगा और मुम्बई मेंफ्लैट बुक करा कर आराम से कविताई करेगा. एक कवि मैं स्वयं था - बसंत आर्य. एककवयित्री भी थी- कुसुम जोशी. ये कई जगहों पर अपनी टाँग फँसाये रखती हैं . सीरियलबनाती हैं. ऐड फिल्म बनाती हैं और हर रस की कवितायें करती हैं. गाती तो अच्छा हैही. वे इंतनी अच्छी दिखती हैं तो खुद अभिनय क्यों नहीं करती ये लोगों के लिएआश्चर्य का विषय है. आज ही उन्हे उनके लड़के ने नया नया मोबाईल दिया था जिसे कैसेओपरेट करना है ये प्रोग्राम के संचालक महोदय उन्हे सिखा रहे थे. नम्बर कैसे रिडायलकिया जाता है ये सीखने के बाद कुसुम जी ने कहा- आज के लिए बस इतना काफी है तो यूनूसखान ने कहा आज न छोड़ेंगे. विविध भारती के दो कॉम्पेयर_ यूनूस खान( अजी अपने वही ब्लाँगर रेडियोवाणीवाले.क्या आवाज है हुजूर की. जी करता है न कि सुनते रहें) जो यूथ्एक्स्प्रेशलेकर युवाओं में लोकप्रिय हैं और सखी सहेलीजिसे लेकर कांचन प्रकाशयुवतियों में चरचा का विषय बनी रहती है- की उर्जा को देख कर सारे कवि दंग थे. कांचनजी का चुलबुलापन अपने चरम पर था. कार्यक्रम की रिकार्डिंग में सभी कवि मजा लेते रहेक्योंकि ये मंच से हट कर एक अलग अनुभव था. बीच में हास्य कवियों के पितामह काकाहाथरसी की कुछ रिकार्डिंग सुन कर कवि धन्य हुए . वीरेन्द्र तरून जी के फाग छन्द सुनकर हम भी धन्य हुए. कार्यक्रम का प्रसारण हुआ 4.3.2007 को दिन में 3 बजे से पाँचबजे के दौरान. चिट्ठियाँ और फोन कॉल आये सिर्फ उन लोगों के जिन्हे हमलोगों ने फोन कर कर के कहा था कि जरूर सुनना ये प्रोग्राम क्योंकि इस टीवी के जमाने में रेडियो सुनता कौन है. और जो सुनते हैं उनके पास फोन नहीं है. सो न उन्हें मैने सुनने के लिए कहा और न ही सुनने के बाद उन्होने कहा कि उन्होने सुना. सुन रहे हैं न!



27/8/07

रानी मुखर्जी साँवली है और रेखा तो एकदम काली

साँवली

यों तो मुहल्ले में कोई भी नई लड़की आये तो लड़कों में दस दिनों तक आहें भरा जाना अनिवार्य है. पर इस बार ऐसा कुछ नहीं हुआ. क्योंकि चम्पा साँवली था और साँवली लड़की में रूचि दिखा कर कोई भी अपनी घटिया पसन्द का प्रदर्शन नहीं करना चाहता था. हाँ, यह बात अलग है कि उसकी अनारो मौसी के साथ सिर्फ मैंने ही चाची का रिश्ता नहीं गाँठ लिया बल्कि पड़ोस के और भी बहुत से लोगों की बुआ , अम्मा , दादी , नानी और ना जाने क्या क्या हो गयी वे.
उसके साँवली होने के कारण अनारो चाची के घर में भी इस बात की चर्चा प्रायः चलती . चम्पा मुझ से कहती- अच्छा बासु, रेखा काली है न? मैं समर्थन में सिर हिला देता तो वह कहती- और रानी मुखर्जी?. मेरे हाँ कहते ही वह दौड़ती हुई सबको ची के पास बुला कर लाती और कहती - देखो, रानी मुखर्जी साँवली है और रेखा तो एकदम काली. फिर भी फिल्मों में काम करती है. पिछली बार ही टी.वी. पर उसकी फिल्म आयी थी. मै तो काली भी नहीं हूँ , साँवली हूँ.
ची कहती - अरे तो क्या तुम्हें कोई फिल्मों में काम करना है. पहले हाथ.....तभी कोई कह देता - रेखा की तो शादी भी नहीं हुई. हुई भी तो.......
फिर चम्पा की आंखों में उदासी के मोती झिलमिलाते . कभी गिर पडते . कभी दिल में अटक कर रह जाते. ची कहती - अरे मेरी बेटी के लिए चाँद सा दूल्हा आयेगाकोई हृदयहीन फिर कह बैठता - चाँद से दूल्हे की अम्मा अपने घर में नौकरानी भी गोरी देख कर रखती है.
फिर कई बरस बीते . मुझे कई जगह अप्लाई कर रिप्लाइ का इंतजार करते - करते दिल्ली में एक नौकरी मिल गई. पर चम्पा को अपनी जिन्दगी के लिफ़ाफ़े पर लिखने के लिए कोई भी पता नहीं मिला. कभी ची झुंझलाती - अरे राम जे भी तो काले थी. किसी ने उनसे कह दिया कि दिल्ली में शहनाज हुसैन रहती है. वह चम्पा को गोरी बना सकती है. वे मेरे पास आई और बोली - बासु बेटा अगली बार दिल्ली से आना तो शहनाज हुसैन से गोरी होने की दवाई लेते आना.दिल्ली जाकर मैंने चम्पा के बारे में बहुत सोचा और एक ही निष्कर्ष पर रूक - रूक गया. बहुत खूबसूरत मगर साँवली सी. मुझे बचपन में खेले गुड्डे गुडियों का खेल स्मृत हो आया और गुड्डे की जगह खुद की कल्पना कर रोमांच .
दिल्ली से वापस आते समय मैं जान बूझ कर गोरे पन की दवाई नहीं लाया.ची बोली - क्यों बासु बेटा , तुम्हें चम्पा की कोई फिक्र नहीं? तुम उसके हाथ पीले नहीं देखना चाहते न?
मैं झिझकते हुए कह बैठा - देखना क्यों नहीं चाहता , मगर इसके लिए उसे गोरी होने की क्या जरूरत है. मुझे तो वह साँवली ही.......सुनते ही ची का मुँह खुशी और आश्चर्य से खुला रह गया पर चम्पा परदे के पीछे शर्म से लाल हो गयी.

कवि सम्मेलन आयोजक

आदरणीय ग़ाडियाजी,
नमस्कार् !
आपको यह पत्र लिखने की जरूरत इसलिए महसूस कर रहा हूँ क्योंकि पिछले कई सालों से परिवार काव्योत्सव का निमंत्रण आप भेजते रहे है और मैं कई सालों से नियमित पुरस्कार समारोह और कवि सम्मेलन का आनन्द उठाता रहा हूँ. इस बार भी आपने निमंत्रित किया और इस बार भी मैं आया बल्कि अपने और भी कई काव्य रसिक दोस्तों के साथ आया. मैं जहाँ बैठा था, जाहिर है उसके आगे पीछे भी श्रोतागण बैठे थे. देर से शुरू हुए कार्यक्रम के दौरान उनसे मारवाडी और हिन्दी में जो प्रतिक्रिया सुनने को मिली उनसे आपको भी दो चार् कराना अच्छा रहेगा.
एक तो ये थी कि यार, इस प्रोग्राम में नेता वेता नहीं आते ये तो अच्छी बात है, पर भाषण इतने लोगों के होते हैं कि वो भी कसर पूरी हो जाती है. और सच में कविता शुरू होते - होते सिर दर्द शुरू हो जाता है. ग़ाडियाजी वैसे मैंने भी कुछ - कुछ् ऐसा ही महसूस किया. चलिए संस्था के लोगों ने कुछ बोला वो तो जरूरी था, क्योंकि आप लोग इतना बड़ा प्रोग्राम करते है. अपनी भावनायें व्यक्त करना ही चाहिए. लेकिन कवियों को भी, जो काव्य पाठ्य करने ही वाले थे, उनसे भी वक्तव्य देने को कहा गया तो श्रोताओं के सब्र का बाँध टूट गया था. उन्होने मन ही मन गालियाँ नहीं दी हो तो उनका शुक्रगुजार होना चाहिए. कवि का वक्तव्य उसकी कविता ही है. उसे जो कहना है अपने काव्य पाठ के दौरान बोल सकता है. कवि तो कवि आप लोगों ने तो संचालक महोदय तक को वक्तव्य देने को माइक सौंप दिया. जब संचालक हर कवि के आने के पहले और जाने के बाद बोलने ही वाला है तो फिर वक्तव्य दिलवाने की आवश्यकता नहीं थी ऐसा अधिकतर लोगों का कहना था जो उन्होने फुसफुसा कर या बुदबुदा कर् कहा, ताकि आप सुन नहीं सके. संचालक की बात चली तो एक बात और है. इस कार्यक्रम में दो - दो संचालक रहते है. पहले सत्र का संचालक और दूसरे सत्र का संचालक. ऐसा लगता है जैसे पहले सत्र का संचालक दूसरे सत्र के संचालन की ट्रेनिंग ले रहा है. या टेस्ट मैच से पहले वन डे खेल रहा है.
हाँ, एक बात पर जोर की हंसी मेरे आस पास गूंजी थी. एक श्रोता ने मारवाडी में कहा- “यार ये सचदेव जी को जुबान की कब्जियत है क्‍या, बोलते हैं तो बात बीच में ही अटक जाती है.”
कि ये हर साल, बल्कि सोलह सालों से वही वही शेर, वही वही कवितायें कोट करते आ रहे है और इसलिए जब कवि हर साल बदलते रहते है तो संचालक हर साल वही क्यों रहता है.
चलिए ये तो अलग मसला है कि एक श्रोता सत्तन के संचालन को बेहतर बताता है और दूसरा उसे नौटंकीबाज बताता है., पर एक बार लोगों ने जरूर् कहा कि वे सुनील जोगी को और सुनना चाहते हैं. लोगों ने शोर भी मचाया, आवाज भी लगायी. पर संचालक जी ने श्रोताओं से कहा- आप मत भूलिए कि आप मेहमान है और हम मेजबान हैं हम जो परोसेंगे वही आपको खाना पडेगा. अरे साहब आपको कौन मना कर रहा है आप जरूर् परोसिये. पर मान लीजिए आपने किसी को घर पर खाने को बुलाया और मेहमान को पनीर की सब्जी जरा ज्यादा अच्छी लग गयी तो क्या आप कहेंगे कि हम मेजबान है जो परोस रहे है. खाईए. मेहमान जब् भगवान की तरह होते है तो उनका मान भी रखना पड़ता है. एक, सिर्फ एक कविता और सुनवा दी गई होती तो लोगों ने और कवियों को भी और ज्यादा ध्यान और प्रेम से सुना होता .
चलिए फुरसत थी. कुछ बातें हो गयी. एक अच्छे आयोजन के लिए आपको सिर्फ बधाई नही देता आपका शुक्रिया भी अदा करता हू. विदा लेता हूँ.
बसंत आर्य

हमने बेचारे माँ बाप को परिवार से छाँट दिया है

पिछले दिनों
अखबार में ये खबर पढकर
कि मुम्बई के मालाबार हिल इलाके की
एक बहुमंजिली इमारत से कूद कर
दो वृद्ध दम्पत्ति मर गये
मेरे दिल मे उदासी
और आंखों में आंसू भर गये
बहुत देर तक मैं उनके बारे में
सोंचता रहा
और उनकी ही बिल्डिंग के नीचे पडे
उनके मृत देह का दृश्य
मुझे कचोटता रहा
तब मुझे लगा
कि आजकल
हम अपने दायरे में
कुछ इस कदर सिमट गये हैं
कि हमे जन्म देने वाले
माँ बाप से ही हम कट गये हैं
हम दो हमारे दो के इस नारे ने
बस इतना भर किया है
कि परिवार का मतलब
सिर्फ मियाँ बीबी और
बच्चे भर रह गया है
हमने उन दोनो बेचारे माँ बाप को
परिवार से छाँट दिया है
किसी लैंड लाइन का
कनेक्शन समझ कर काट दिया है.
आजकल हर किसी के दिमाग में
यही घर कर रहा है
कि उसका काम तो मोबाईल से चल रहा है
और वो फालतू मे
हर महीने लैंडलाइन का बिल भर रहा है
लेकिन हम ये भूल जाते हैं
कि माँ बाप चाहे कहीं भी रहें
हम पल भर भी
उनके आशीर्वाद के कवरेज एरिया से
बाहर नही जाते हैं
और तो और
अरे ये मोबाईल का कनेक्शन लेते वक्त भी
ये लैंडलाइन ही है
जिनके बिल हमारे काम आते हैं
हम अगर समय पर नहीं चेते
तो अपने किये का नतीजा भुगतेंगे
सिर्फ और सिर्फ पछतायेंगे
उस दिन कुछ भी नही कर पायेंगे
जिस दिन हमारे बच्चे
खुद हमारे नेट वर्क ऐरिया के
बाहर चले जायेंगे.

23/8/07

एक नेताजी, एक श्मशान और उसका उद्घाटन.

केंन्द्र से लेकर ग्राम पंचायत तक, जहाँ भी देखो निर्माण ही निर्माण चल रहा है. लेकिन सारे निर्माण की तब तक कोई महत्ता नही है, जब तक किसी मंत्री जी के हाथों से उसका उद्घाटन न हो जाये. कई महीनों तक मुम्बई मे एक फ्लाई ओवर का उपयोग शान से शहर के आवारा कुत्ते करते रहे पर आदमियों को उसका उपयोग करने की मनाही थी क्योकि उसके उद्घाटन के लिए कोई बड़ा मंत्री नही मिल पा रहा था. मंत्रियों की भी बुरी हालत है. इतने निर्माण , इतने उद्घाटन . कहाँ कहाँ मारे-मारे फिरते रहें.
पर बिना उद्घाटन के निर्माण का महत्व ही क्या है? निर्माण का महत्व तभी है जब कोई बडा नेता शिलान्यास करे, बडे बडे ठेकेदार निर्माण करें और बडे बडे मंत्री उसका उद्घाटन करें . फिर जनता उसका उपयोग करे तो कितना अच्छा लगता है.. पिछले दिनों मुम्बई मे एक अजीब वाकया हुआ. नगरपालिका ने श्मशान घाट का निर्माण करवाया पर उसके उद्घाटन के लिए कोई मंत्री खाली ही नही मिल रहा था. जो खाली रहा होगा, वह राजी नही हुआ होगा . पर चूँकि देश उद्घाटन के बुखार से ग्रस्त है, इसलिए वह भी जरूरी था. तो नगरपालिका वालों ने एक वरिष्ट पुलिस अधिकारी के समक्ष उद्घाटन का प्रस्ताव रखा. पर अधिकारी ने भी इनकार कर दिया. पता नही श्मशान के उद्घाटन की समस्या कैसे हल हुई पर मैने गौर से सोंचा कि श्मशान के उद्घाटन का सही तरीका क्या हो सकता है? एक तरीका तो यह हो सकता है कि उद्घाटनकर्ता खुद् जाकर वहाँ अपनी अंत्येष्टि करवा ले पर इसके लिए शायद ही कोई राजी हो.
दूसरा तरीका यह भी है कि आपके उद्घाटन करने के लिए कोई मुर्दा लाया जाये. उसे आप प्रेम से चिता पर लिटा कर मुखाग्नि प्रदान करें. लेकिन ऐसे मे एक समस्या यह भी है कि सही वक्त पर कोई मुर्दा ही नही मिले. खैर , जो भी हो कितना अच्छा लगता , जब चारों ओर उद्घाटनकर्ता के स्वागत एवं सम्मान मे बडे बडे बैनर लगे हो “ श्री श्री फलाँ फलाँ का हमारे श्मशान मे सहर्ष स्वागत है,” मरने के बाद चाहो भी तो स्वागत के बैनर तो लगने से रहे.
वैसे अब श्मशान या कब्रिस्तान भी हमारे समाज मे पैकेज का हिस्सा बनते जा रहे है. एक बिल्डर ने अपने प्रोजेक्ट की विशेषताओं का बखान विज्ञापन मे इस तरह किया,” बाजार, अस्पताल, स्टेशन , सिनेमा हाळ, पुलिस चौकी और श्मशान पांच मिनट की दूरी पर.” वसे अमरीका वगैरह मे तो कब्रिस्तान की भी जबरदस्त मार्केटिंग होती है. वहाँ कब्रिस्तान भी इस तरह सजे रहते है कि बाहर से गुजरने पर लगता है जैसे अन्दर शादी के मंडप मे कोई नवयुगल को फेर करवा रहा होगा. ऐसे ऐसे सुंदर , डिजाइनदार कब्रिस्तान होते हैं कि सौन्दर्य प्रेमी व्यक्ति हुआ तो वह जानबूझ कर मर जाये.
ऐसे ही एक सजे – धजे रमणीय कब्रिस्तान मे एक बार मै यह सोचकर घुस गया कि अन्दर शायद कोई पार्टी चल रही है. बाहर फूलों , मोमबत्तियों और अन्यान्य चीजों की दुकानें सजाये विक्रय बालायें मुस्कुरा रही थी. मै अन्दर गया तो देखा कि कब्रें भी इस कदर खूबसूरत है कि अपना तो मकान भी उसके आगे कुछ नही. कोई कब्र फूलों से ठकी है तो कोई गुलदस्तों से अटी पडी है. पर आप यह न समझ ले कि इन विदेशियो के मन मे अपने से बिछुडी आत्माओं के लिए बहुत प्यार उमड रहा है. दरसल होता यह है कि जैसे ही मरने के बाद कोई शव कब्रिस्तान मे लाया जाता है कब्रिस्तान का मार्केटिंग विभाग मुर्दे के साथ आये लोगो का अता पता , ईमेल ऐड्रेस आदि ले लेते हैं. फिर हर साल ऐन वक्त से चार दिन पहले उन्हें ई मेल भेज देते हैं.” महोदय, फलाँ फलाँ दिन को आपके चाचा , मामा, पिता या आपकी पूर्व पत्नी की पूण्यतिथि आ रही है. आप अपनी व्यस्त दिनचर्या से समय निकालने मे असमर्थ हो अथवा उस दिन अपनी नई गर्लफ्रेंड के साथ डेतिंग पर जा रहे हो तो हम आपकी ओर से उनकी कब्र पर पुष्प गुच्छ चढा देंगे. इसके लिए आपको इतनी राशि का भुगतान करना होगा.”
भला आदमी क्रेडिट कार्ड से इंटरनेट के जरिए पेमेंट कर देता है. कब्र पर फूल चढ जाते हैं. मोमबत्तियाँ जलने लगती है.
मै कब्रिस्तान से बाहर निकल रहा था तो कुछ लोगों ने मुझे घेर लिया और बोले, “ क्या आप अपने बच्चों से प्यार करते हैं?”
अब कौन महामानव होगा जो इसका उत्तर ‘न’ में देगा. मैने जैसे ही हाँ मे सिर हिलाया वे बोले, “ हमारी कम्पनी मे एक स्कीम है. इसके तहत एक छोटी सी राशि का भुगतान आपको हर वर्ष करना है. यह छोटी सी रकम बढकर एक दिन बहुत बडी हो जायेगी.. यह रकम आपके मरने के बाद आपके अंतिम संस्कार के काम आयेगी. अब आप ही सोंचिए आपकी अंत्येष्टि पर आपके बच्चों को कुछ भी खर्च नही करना पडेगा तो उन्हे कितनी खुशी होगी.”
मैने मार्केटिंग की उस महान आत्मा को प्रणाम किया और पूछा कि क्या इस स्कीम का उद्घाटन हो चुका है या मुझसे ही इसका उद्घाटन होना है, तो महान आत्मा ने बताया कि इस स्कीम के उद्घाटन का श्रेय उनके पिताजी को जाता है.
वैसे सही मायने मे उद्घाटन की स्थिति बहुत चिंतनीय है. संगीत के कार्यक्रम का उद्घाटन बहरा व्यक्ति कर्ने आ जाता है. नाई की दुकान का उद्घाटन करने जो नेता आता है वह गंजा होता है. असल मे उद्घाटन का सही तरीका होना चाहिए . जैसे होटल का उद्घाटन करना है तो उद्घाटन कर्ता खाना खाकर और खास कर बिल चुका कर होटल का उद्घाटन करे
नारियल फोडलर और फीता काटकर उद्घाटन करने का अन्दाज कुछ पुराना सा लगता है. वैसे भी ऐन मौके पर नारियल इतना कडा निकलता है कि मंत्री जी के नाजुक हाथों से पटकने पर फूटने का नाम ही नही लेता . कई बार तो कैची इतनी भोथरी होती है कि जवाब नही.
ऐसे मे मुझे एक ऐसे उद्घाटन की याद आ रही है जो वहाँ उपस्थित लोगो को भी बहुत पसन्द आया या. दिल्ली मे एक सुलभ शौचालय का उद्घाटन होना था. उद्घाटन कर्ता ट्रैफिक मे कही फंस गये.
आते आते कई प्राकृतिक आवश्यकतायें उनके धैर्य की परीक्षा ले रहे थी. परिणामस्वरूप वे जैसे ही उद्घाटन स्थल पर पहुचे , आयोजकों को धकियाते हुए एक शौचालय के अन्दर घुस गये. पांच मिनट बाद बाहर निकले तो उनके चेहरे पर असीम शांति थी. लोगों ने पूछा तो उन्होने सहज भाव से कहा कि उन्होने बिल्कुल सही किया है और शौचालय के उद्घाटन का इससे बेहतर तरीका हो ही नही सकता था. अब यह अलग बात है कि जल्दबाजी मे मंत्री महोदय ने महिला शौचालय का उद्घाटन कर दिया.था.
इससे यह बात भी साफ हो गई कि मत्री महोदय को जिस चीज ( उद्घाटन ) का सबसे ज्यादा अनुभव होता है वह काम भी उनसे सही तरीके से नही हो सकता . आपका क्या ख्याल है?

20/8/07

ये बात भी झूठी है

आप कहते हैं
ये दुनिया झूठी है
यहाँ के लोग झूठे हैं
उनकी बातें झूठी है
फिर ये बात सच्ची है
इसकी क्या गारंटी है
सच तो ये है
कि ये बात भी झूठी है.

16/8/07

दूसरा ईसा मसीह


कच्ची नींद से जागता हूँ
काम पे भागता हूँ
यहाँ वहाँ भटकता हूँ
रोज सूली पर लटकता हूँ
सोंचता हूँ

जब हम नहीं रहेंगे
लोग हमें कहीं
दूसरा ईसा मसीह तो नहीं कहेंगे.

12/8/07

चूहेदानी




एक चूहे को
मैने चूहेदानी मे पकड़ा
पकडे जाने पर
उसकी छटपटाहट देख
मै भी छटपटा उठा
और चूहेदानी खोल दी
सोंचता हूँ
मैंने चूहे को पकड़ा जरूर
पर आखिर में चूहे ने मुझे पकड लिया


8/8/07

पत्नियाँ पतियों को क्यों डांटती रहती है?

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पिछले दिनों फ्रेंडशिप डे आया तो मोबाइल पर कई दोस्तों के सन्देश आये. कुछ मित्रो को हमने भी सन्देश भेजे. एक दोस्त ने बंबइया हिंदी में कुछ उस तरह इजहार ए मोहब्बत की-


गॉड अपुन से पूछा किधर जाना मंगता? स्वर्ग या नर्क? अपुन बोला- नर्क. अपुन को मालूम, तुम साला दोस्त लोग उदरिच मिलेंगा. बोले तो जिधर तुम होयेंगा अपुन का स्वर्ग उदरिच .


एक संदेश ऐसा था जो अगर किसी पुरूष मित्र ने भेजा होता तो हम मजा लेकर रह जाते, पर यह संदेश एक महिला मित्र ने भेजा था.( महिला मित्र से मेरा मतलब उस तरह के पुरूष मित्र से है जिनकी बहुत ज्यादा महिलायें मित्र होती है.) संदेश छोटा सा था-


दोस्त के बगैर जिंदगी वैसी ही है जैसे वक्ष के बगैरस्त्री.


हम तो अब तक इसी दुविधा में है कि हम उनके लिए पहले क्या हैं. और वे हमारे आकार , प्रकार , व्यवहार आदि से कितने खुश है.मुझे उसी क्षण प्रसिद्ध तमिल लेखिका चूडामनी राघवन की कहानी श्री राम की माँ की नायिका याद आ गयी जो सड़क पर चलती थी तो इस कदर सीना तान कर मुस्कुराती थीजैसे कोई विशाल साम्राज्य की महारानी अपने साम्राज्य की विशालता पर मन्द मन्द मुस्कुराती है. जब उसका लड़का अपनी प्रेमिका को उससे मिलवाने घर लेकर आता है तो वह उसके सपाट सीने को देखकर सोंचती है कि उसके लडके को इस लड़की में आखिर दिखा क्या?


वहरहाल् गजब कई हुए उस दिन. मेरी बिटिया सेफी मुझे बाजार लेकर गई. अपनी दोस्तों के लिए फ्रेंडशिप बैंड खरीदने. उसने अपने दोस्तों को ख्याल में रखते हुए बताया कि इतने बैंड चाहिए. हालाँकि इसे वह राखी समझ रही थी. खैर जितने उसने बताये मैने उससे एक ज्यादा बैंड खरीदा.


बिटिया बोली- एक अधिक किसके लिए?


मैने कहा- मेरे लिए.


बिटिया बोली- आप किसे बाँधेंगे?


मैने कहा- तुम्हारी मम्मी को.


बिटिया बोली-मम्मी क्या आपकी दोस्त है?


मैंने कहा- हाँ वो मेरी बेस्ट फ्रेंड है.


इसके बाद बिटिया ने एक मासूम सा सवाल किया जिसका जवाब मुझे आज तक नहीं सूझ रहा है. उसने बड़ी सरलता से पूछा- मम्मी अगर आपकी दोस्त है तो फिर वह आपको डांटती क्यों रहती है?:-D


अब कौन बनेगा करोड़पति में अमिताभ बच्चन साहब ने भी किसी से यह सवाल नहीं पूछा क्योंकि ये तो सौ करोड का सवाल है. आपके पासअगर जवाब और अनुभव हो तो बताएं कि पत्नियाँ पतियों को क्यों डाँटती रहती है?


वैसे ये अलग बात है कि वह बैंड मैं अपनी पत्नी की कलाई पर नहीं बाँध पाया क्योंकि इसी बीच मेरी बिटिया ने एक और नयी दोस्त बना लिया और मुझ से बैंड छीन कर उसकी कलाई पर बाँध आई. तस्वीर में वह नई दोस्त एक पुरानी दोस्त के साथ अगल बगल दिख रही है

7/8/07

दुनिया के पुराने सात आश्चर्य

दुनिया के सात आश्चर्यों की बड़ी चर्चा रही पिछले दिनों. पर मेरे दोस्त रवीन्द्र प्रभात ने जिन नये सात आश्चर्यों की चर्चा की तो मुझे लगा ये तो आठवाँ आश्चर्य है कि दुनिया जिन चीजों को सात आश्चर्यों में शुमार करती है वे दरअसल एक बचकानेपन की बात है. लिजिए उनकी जुबान से ही सुनिये-
प्रिय बसंत जी,
आज मैं जीवन के जिन सात आश्चर्यों की चर्चा करने जा रहा हूं उन्हीं सात आश्चर्यों में से
एक है हँसना और हँसने का हीं उत्कृष्ट रूप है ठहाका. यही दुआ है कि ठहाका के मध्यम
से मिलने- मिलाने का यह माध्यम बना रहे..

आपने मेरे बारे में जो लिखा है, उतना सौभाग्यशाली मैं हूं नहीं, यह तो आपकी महानता है जनाब, जो इतना महसूस किया...... पिछले दिनों ताज को दुनिया के सात अजूबों में मार कराने के लिए भारत के लोगों ने काफ़ी मशक्कत की. अच्छी बात है, पर यदि हम अपने भीतर की यात्रा करते हुए जीवन के सात अजूबों का एहसास कर सकें , तो इसमें कोई संदेह नहीं कि जीवन बहुत हीं ख़ूबसूरत और सारगर्भित हो जाएगा . अब आप कहेंगे कि जीवन के सात अजूबे कौन से हैं? तो मेरा जवाब यही होगा कि वह है-देखना,सुनना, स्पर्श करना, महसूस करना,हँसना,रोना और प्यार करना.
चौंक गये क्या जनाब ? चौंकिए मत, यही सच है. इस दुनिया को देख पाना एक सुखद आश्चर्य है, जिसने दुनिया को विविधता का रंग दिया, उसी ने हमें देखने की शक्ति दी .हम हिमालय की उँचाई को देख सकते हैं, ताजमहल की खूबसूरती को निहार सकते हैं, वहीं सड़क पर पड़े कचरे को भी देखते हैं. हमारे पास अंदर झाँक ने की शक्ति भी है, जिससे हमें अपने भीतर मौजूद असीमित संभावना दिखती हैं,जो दुनिया को ख़ूबसूरत बना सके. उसी प्रकार हमारे पास सुनने की अद्भुत क्षमता है. हम बादलों के अट्टहास सुन सकते हैं, तो चिड़ियों के कलरव भी, हम दुनिया की भी सुनते हैं और अपने मन की आवाज़ को भी. इसलिए सुनना जीवन का दूसरा सबसे बड़ा आश्चर्य है.
मनुष्य का जीवन बड़ा क़ीमती है, पर सुनना नही आया तो जीवन का कोई उपयोग नहीं.राह पर चलते हुए हर राहगीर को सड़क पर गिरे सिक्के का स्वर अचानक अचम्भित करता है, किंतु वहीं राह के किनारे किसी घायल की व्यथा के मौन स्वर सुनने का भान शायद किसी- किसी को प्राप्त है. सुनना एक ऐसी पारस मनी है, जो अंदर से बाहर तक मनुष्य को स्वर्णयुक्त बना देता है. छूना अर्थात स्पर्श करना एक ऐसी शक्ति है, जो व्यक्ति के भीतर उर्जा का संचरण करती है. यदि कोई दुखी है, पीड़ित है और उसके कंधे पर हाथ रख दिया जाए, तो निश्चित रूप से उसकी पीड़ा कम हो जाएगी. रोते हुए बच्चे को अचानक माँ द्वारा गोद उठा लेना और संस्पर्श का एहसास पाकर बच्चे का चुप हो जाना यह दर्शाता है कि स्पर्श हमारा भावनात्मक बल है.
इसी प्रकार महसूस करना अर्थात भावनात्मक होना मनुष्य की आंतरिक जीवन दृष्टि है, जहाँ आकार लेता है जीवन मूल्यों का सह अस्तित्व, क्योंकि कहा गया है कि जिससे हमारी भावना जुड़ जाती हैं, उसकी प्रशंसा करने अथवा प्रशंसा सुनने में भावनात्मक संतुष्टि मिलती है. यही है जीवन का चौथा आश्चर्य. उसी प्रकार हँसना प्रकृति के द्वारा प्रदत एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. हँसना एक चमत्कार है, आश्चर्य है, क्योंकि हँसने से जहाँ ज़िंदगी के स्वरूप और उद्देश्य का भाव प्रकट होता वहीं नीरसता , उदासीनता और दुख का भाव नष्ट करते हुए आनन्द्परक वातावरण का निर्माण करता है. यह भाव केवल मनुष्य में ही होता है. उसी प्रकार जब आदमी रोता है तब सबसे ज़्यादा सच्चा होता है, उजला होता है. रोना
कायरता नहीं है,
खूद का सामना करने की ताक़त की निशानी है. राष्ट्र कवि दिनकर ने कहा है, कि जिसका
पुण्य प्रबल होता है वही अपने आँसू से धूलता है. इसलिए रोना छठा सबसे बड़ा आश्चर्य
है. कहा गया है, कि लगाव, दोस्ती,इश्क़,ममत्व और भक्ति हमारी पाँच उंगलियाँ है,. जो
जीवन की मुट्ठी को मजबूत करती है. किसी कठिनाई और समाधान के बीच उतनी हीं
दूरी है, जितनी दूरी हमारे घूटनों और फ़र्श में है, जो घुटने मोड़कर ईश्वर के सामने झुकता
है, वह हर मुश्किल का सामना करने की शक्ति पा लेता है. यही है प्यार, जो जीवन का
सातवाँ आश्चर्य है. शायद हमारी बातों से सहमत हो गये होंगे आप?

रवीन्द्र जी की इस सोंच को मैं नूतन कपूर के इस शेर से खत्म करता हूँ आँखों से तो केवल उसका आना जाना था उसका दिल के भीतर के भी भीतर कही ठिकाना था.

6/8/07

एक लघुकथा में एक बड़ी कहानी

अंतिम इच्छा
जब तक उसकी बांहों में बल रहा , उसने मेहनत मशक्कत करने से कभी जी नहीं चुराया और हमेशा अपने दोनों बेटों की नाजो नेमत में लगा रहा. लेकिन जब उसी जवानी के जोश में बुढ़ापे का जंग लगना आरंभ हुआ तो बेटों को भी अंगूठा हीन एकलव्य् सदृश मां बाप की उपस्थिति दूध में पड़ी मक्खी की तरह खलने लगी. बूढ़े की आँखों में धूल झोंक कर जमीन जायदाद अपने हाथों में कर ली. दोनों भाईयों के आधे आधे हिस्से भी बंट गये. वृद्ध माँ बाप को खर्च भी दोनों ने आधा आधा बांट लिया. मगर पके आम सी जिस वय में प्यार की आवश्यकता पहले है पैसा साथ भी दे सकता है तो कहाँ तक ? एक दिन बूढ़ा कही जा रहा था. धूप की मार बरदाश्त नहीं हुई और चलते चलते ही.........
इधर शाम हो गयी पर बूढ़ा नहीं आया तो बुढ़िया की व्याकुलता बढ़ने लगी . बेटों को खोज खबर लेने को कहा तो जवाब मिला कि कोई दूध पीते बच्ची थोड़े ही है जो खोजने जायें. मगर जब संतोष नहीं हुआ , तो स्वयं निकल पड़ी. भीड़ देखकर एक जगह पता करना चाहा तो हैरान रह गयी. बूढ़ा मरा पड़ा था ”किसी ने गला घोंट दिया है.” ”हमें तो लगे है शराबी. नशा में है.” ”नहीं मर चुका है जी.”
जैसे लोग वैसी बदी. बुढ़िया से रहा न गया. ‘आप लोग परेशान मत होईए. ये मेरे पति हैं’ लोग सहानुभूति जताने लगे.’क्या दुर्गति हो गयी भले मानस की, बूढी माँ तेरा कोई बेटा नहीं है. क्रिया कर्म की व्यवस्था करो.’
तभी कही से दोनों बेटे भी आ गये. पर हाय! कोई कफन खरीदने को भी तैयार नहीं. एक अपनी खाली जेब की दुहाई दे रहा है तो दूसरा उसका भी काँच काटता है. ‘मरे पर खर्च करने को जरूरत क्या है?’
काफी चाय चूँ के बाद दोनो में समझौता हुआ तो जाकर कफन की व्यवस्था हुई. दो अन्य लोगों ने मिलकर कन्धा दे दिया. श्मशान पहुंच कर बाकी कार्य भी ठीक ढंग से सम्पन्न हो गया. लोगों के वापस लौटने का वक्त भी आ गया. पर बुढ़िया वैसे ही चिता की और निर् निमेष ताक रही थी. बेटों ने देखा तो झकझोर कर जगाया. “माँ...” बेटों को देख बुढिया के आगे फिर एक बार चौराहे की घटना एक एक कर नाच गयी.. उसके जी में आया वह उसे जोर जोर से गालियां देने लगे. ‘ कफनचोर कहीं के नहीं जाना तुम्हारे साथ.’
बेटों का सब्र टूटा, “बोलती क्यों नहीं माँ? चलो न घर को.”
वह बोलती हुई काँप गयी,”बेटा, अब एक ही आकांक्षा है . पैरों के बल श्मशान आ गयी हूँ तो नहीं चाहती चार लोगों के कंधे को फिर कष्ट हो बस.” बेटों के पास कोई जवाब नहीं था. उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि अब वे क्या कहें.

4/8/07

न हँसे कोई, न मुस्कुराए, बस ठहाका लगाया जाय


ज सुबह सुबह् एक मेल मिला
प्रिय बसंत जी, किसी ने ख़ब ही कहा है- हँसना रवि की प्रथम किरण सा, कानन मेंनवजात शिशु सा . हमारा वर्तमान इतना विचित्र है,की अपनी इस सहज ,सुलभ विशिष्टताको हमने ओढ लियाहै, हर आदमी इतना उदास है,की उसे हँसने के लिए लाखों जतन करनेपड़ते हैं. हँसने के लिए.कोशिश करना इंसान के लिए बहाने ढूँढना या फिर दिखावाके लिए हँसना हमारे व्यक्तित्व केखोखलापन को उजागर करता है. ईश्वर हर जगहइंसानों को जोर -जोर से हिल-हिल कर हँसनेकी कोशिश करते देख वाकई हँसता होगा, क्योंकि ईश्वर तो उदास नहीं हैं. हम उदास हैं.हमारी मशीनरी दिनचर्या ने हमेंचिरचिरा बना दिया है,हम हँसने के लिए वजहढूँढ़ते हैं,यदि ज़िंदगी को कुछ कमगंभीर कर लिया जाये, तो इस अद्भुत आश्चर्य हँसी कोमहसूस कर सकेंगे. आपकाठहाका मेरे शरीर के पोर -पोर को रोमांचित कर गया,बेहद सुंदर प्रस्तुति, बेहदसुंदर संयोजन. कोटिश: बधाइयाँ, इस शेर के साथ
हर शख्स के भीतर इक नयाअहसास जगाया जाय , की उनका आईना पलटकर उन्हें ही दिखाया जाय , मगर यह शर्तहो सबके लिए महफ़िल जमे जब भी- न हँसे कोई, न मुस्कुराए, बस ठहाका लगाया जाय .
आपका- रवीन्द्र प्रभात
फिर तो कई बातें याद आने लगी. उस दिन बड़ी गहमा-गहमी थी उस कालेज के प्रांगण में. मुझे शहर के कवि मित्र राम चन्द्र विद्रोही वहाँ घसीट कर ले गये थे. एक युवा कवि रवीन्द्र प्रभात् -की काव्य पुस्तक का विमोचन था उस दिन. ये सुन्दर नौजवान उस कालेज में भूगोल पढ़ाता था. शहर के सारे गण्यमान्य लोग वहाँ उपस्थित थे. नेता थे, मंत्री थे. प्रोफेसर थे , प्रिंसपल थे, छात्र थे, छात्रायें थी. मतलब जो भी हो सकते थे वहाँ थे. ये शख्स कवि के रूप में कितना लोकप्रिय था ये तो पता नहीं परंतु एक इंसान के रूप में गजब रूप से पोपुलर है इसका भरोसा हो गया. मैंने भी बधाईयाँ दी. प्रोग्राम के बाद घर आ गये. अगले दिन या शायद अगले के अगले दिन घर के बाहर से रिक्शे में बैठे एक व्यक्ति ने पुकारा. देखा जनाब मुझ से मिलने मेरे घर आये हैं. मैंने कहा – रिक्शा छोड़ दीजिए. बोले नहीं गरीब बेचारा कहाँ जायेगा और रिक्शे वाला दो घंटे तक बाहर इंतजार करता रहा. दरअसल ये उनकी अदा था. वे कभी भी पूरा रिक्शा करते थे. मतलब कोई शेयरिंग नहीं. शहर भर में उससे चक्कर लगाया करते थे. रात को रिक्शे वाले को एक मुश्त पैसा दे देते थे. रिक्शा वाला खुश कि इतना तो कितना भी भार ढोते तो नहीं मिलने वाला था. बाद में मुझे पता चला कि भाई साहब को शहर का हर रिक्शा वाला जानता पहचानता था और उन्हें देख कर चाहता था कि आज का दिन उनका रिक्शा पवित्र हो तो शाम का प्रसाद पाकर मजा आये.
अब एक मजे की बात बनाये कि इनकी हस्तलिपि इतनी अच्छी है कि इनका एक हाथ से लिखा पत्र पढ़ कर सहारा ग्रुप् के एक उच्च और पारखी अधिकारी ने इन्हें लखनऊ बुलाया और कहा इतने अच्छे हस्तलिपि वाले व्यक्ति को हमारी कम्पनी में होना चाहिए और अच्छी खासी पगार वाली नौकरी दे दी. वैसे ये अलग बात है कि उस कम्पनी में सारे पत्र व्यवहार कम्प्यूटर से ही होटल है. तो अब कवि जी लखनऊ में अपने मकान में रहते है. अपनी गाड़ी में अपनी बीवी और अपने बच्चो के साथ लखनऊ की गलियों में घूमते है. मांस मछली से परहेज नहीं करते और लोगों को दारू शारू पिला कर नाली में गिराने में आगे रहते है . मतलब पोंगा पंथी नहीं है इनकी एक खास बात है कि जो भी इनसे एक बार मिलता है उसे ये अपना बना लेते है. चाहिए तो कभी आजमा कर देख लीजिए.

2/8/07

दिमाग में शिवजी की जटा से भी ज्यादा उलझाव है

ओम जी को भूल गये? आपने उन्हें याद ही कब किया कि भूलेंगे. क्या पता आप उन्हें जानते ही न हो. दिल्ली में रहने वाले कई मिले जिन्होने लाल किला ही नहीं देखा जब कि उनकी उम्र भी लाल किला से कम न होगी. अब आप ये न कहाना कि मेरा इतिहास कमजोर से भी ज्यादा कमजोर है. हाँ समाज को जरा समझने की ललक है. अगर आप जयपुर जायें और वे आपसे मिलने को राज़ी हो जायें तो उनसे जरूर मिलिए. आपको ऐसी ऐसी जगह घुमा सकते हैं जो राजस्थान के लोगों को भी मालूम नहीं. एक रिक्शे वाले ने बताया कि ओमजी ने एक बार जयपुर में एक रिक्शा वाला मुझे मिला . उसने बताया कि वह बीस सालो से रिक्शा चला रहा है. जाने कितने विदेशी सैलानियों को जयपुर घुमा चुके हैं. जयपुर में हर जगह के बारे में जानते हैं ऐसा वे मानते है. पर ओमजी ने उस रिक्शे वाले को एक जगह ले चलने को कहा . रिक्शा वाला भौचक था कि ऐसी तो कोई जगह नहीं . ओमजी ने कहा - है तो है. और हम ढूंढ कर छोडेंगे. 250 साल पहले एक अंग्रेज जब इस जगह के बारे में इतना कुछ लिख कर गया तो जगह उड कर तो कही नहीं जायेगी. पन्द्रह दिन तक रिक्शे में ओमजी और जयपुर में रिक्शा दौडता रहा. और आखिर वो जगह मिल ही गई. वो जगह कौन सी है जिसके बारे में उस अंग्रेज ने लिखा था और 99% अंग्रेज भी उस जगह को देखे बिना जयपुर से लौट जाते है ये जानने के लिए या तो आप ओमजी को मेल कीजिएया उन्हें फोन कीजिए. फोन नं उनसे मेल कर के पूछ सकते हैं लोग कहते हैं कि हस्त लिपि भी एक विज्ञान है और इससे व्यक्तित्व का पता चलता है. जिसकी लिखावट सीधे सादी साफ है आदमी भी साफ है और जो जटिल लिखावट का मालिक है उसके दिमाग में शिवजी की जटा से भी ज्यादा उलझाव है और उससे जो गंगा निकलती है उसमे शिवजी भी डूब जाये. ओम जी कवि तो है ही पर उनकी हस्तलिपि देख कर उन्हें ये बताईए कि वे आदमी कैसे है. 982922114_b6cb80e0f8

1/8/07

क्यों खुशी मेरे घर नहीं आती

देवी नागरानी 981610061_325a03b0aa_tसे कभी मुलाकात नहीं हुई क्योंकि जब से मैं मुम्बई में रह रहा हूँ बस से वे भारत से बाहर अमरीका में रह रही है. इस साल जब वे अमरीका से भारत दौरे पर आई थी तो फोन पर उनसे बात हुई. मैं मिलना चाह रहा था पर उस वक्त वे पुनः अमरीका की खोज करने जा रही थी . बातों बातों में मुलाकात भी अच्छी थी. मैंने कहा - अमरीका जाकर आप भूल जायेंगी तो झट उन्होने एक स्वरचित शेर सुनाया


न बुझ सकेंगी ये आन्धियाँ


ये चरागे दिल है दिया नहीं


तब मुझे यकीन आ गया कि देवी नागरानी अमरीकी हिन्दी साहित्य की एक सशक्त लेखनी का नाम है. उन्होने अंपनी पुस्तक भिजवाई. उसका शीर्षक ही था- चरागे दिल. पढ़ कर यही लगा कि देवी नागरानी ऐसी देवी है जिनके आगे दिया नहीं जलाया जाता . बल्कि वे खुद एक दिया है जो अनवरत जलती रहती है. इसी लिए उनकी गजलो में जलने जलाने की बातें घूम फिर कर आ ही जाती है.


मैं अन्धेरे से आ गई बाहर


जब से दिल और घर जला मेरा


हम अपनों से चोट खाते है क्योंकि उनसे हमारी अपेक्षाये जूड़ी रहती है इसलिए उन्हें भी कहना पड़ा- भर गया मेरा दिल अपनों से सुख से गैरो के बीच रहती हूँ पर वे फिर कहती है


क्यों खुशी मेरे घर नहीं आती


क्या उसे मैं नजर नहीं आती


ख्वाब देखूँ तो किस तरह देखूँ


नींद तो रात भर नहीं आती


अब उन्हें कौन बताये कि खुशी आसमान की तरह है जो चार कदम आगे बढो तो चार कदम और दूर भाग जाती है. उनके गम भी अजीब है


अन्धेरी गली में घर रहा है मेरा


जहाँ तेल बाती बिन एक दिया है


पर वे एक दरिया दिल इंसान है तभी तो वो कहती है


मिट्टी का मेरा घर अभी पुरा बना नहीं है


हमसफर गरीब मेरा, बेवफा नहीं है


विश्वास करो तो करे वरना छोड़ दो


इस दुम समय मेरा बुरा हैं, मैं बुरा नहीं


अब हमारे साथ मिलकर यही दुआ कीजिये की हमारी इस शायरा का मिट्टी का घर पूरा बन जाये और उसके हमसफर कि गरीबी भी दूर हो जाये. वरना वे हमेशा यही गुनगुनाती रहेंगी


यूँ उसकी बेवफाई का मुझको गिला न था


मैं एक तो नहीं थी जिसको कुछ मिला न था.

26/7/07

मेरा कुत्ता

मेरा कुत्ता नेता हो गया है
लोगों का चहेता हो गया है
जहाँ भी जाये
जुगत भिड़ा लेता है
भाषण देने लगे
तो जमा देता है
कुत्ता मेरा है --
पर काम आपके भी आ सकता है
मसलन मनचाही जगह
आपकी ट्रांसफर करा सकता है
या पड़ोसियों को
झूठे मुकदमे में फँसा सकता है
आप कहेंगे
फाँक रहा है
इसका कुत्ता है न
इसीलिये हाँक रहा है
मगर झूठी बात नहीं करता हूँ
ऐसा इसीलिए कहता हूँ
क्योंकि पहले मेरा कुत्ता
खाना खाने के बाद
पाँच घंटे के लिए गायब हो जाता था
फिर वह पाँच पाँच हफ़्‍ते पर आने लगा
और कुछ दिनों बाद तो
पाँच महीने पर आकर खाने लगा
और अब तो बिल्कुल गजब ढाता है
खाना खाने के बाद
पाँच साल के लिए गायब हो जाता है
बीच में एक बार भी नहीं आता है
इसीलिए तो कहता हूँ
मेरा कुत्ता नेता हो गया है
लोगों का चहेता हो गया है

नेता और वसीयत

एक पागल कुत्ते ने


एक कठोर दिल नेता के


मुलायम पृष्ठ भाग को नोचा


तो नेता तो अब जरूर मर जायेगा


ऐसा लोगों ने सोंचा


लोग देखने के लिए गये कि


कुत्ता काटा नेता कैसा दिख रहा है


पर अरे ये क्या


नेता तो आराम से कुर्सी पर बैठा


कागज कलम लिए कुछ लिख रहा है


लोगों ने कहा- नेताजी


क्या वसीयत लिख रहे हो


नेता बोला- वसीयत लिख कर वसीयत क्या मैं चाटूंगा


अरे मैं तो लिस्ट बना रहा हूँ


कि कल सुबह किनको किनको काटूँगा.

24/7/07

आईना मिलते ही चेहरा खो जाता है.

हम जिन्दगी में जाने क्या क्या पाने की ख्वाहिश रखते थै. उस जाने क्या क्या को पाने में एक दिन हम पाते हैं कि हम खुद खो गये हैं. कुछ और थे ,कुछ और हो गये हैं. किसी के पास आने में कई दफा हम स्वयं से ही कितने दूर चले जाते है. यही ख्याल आ रह है बार बार कि हम कहाँ से आये और यहाँ किस लिए है . यहाँ से कहाँ जायेंगे. क्या नदी में बहते सूखे पत्ते नहीं है हम. हम पर हमारा वश है क्या? बहुत दिनों बाद एक कविता लिखी आज


आईना


पहले


मेरे पास एक चेहरा था


आईना नहीं था


आईना जुटाने में


चेहरा ही खो गया


अब इस आईने का


मैं क्या करुँ?

23/7/07

लालू यादव ही नहीं , सारे बिहारी चोर हैं

आप डिवाइन इंडिया के चिट्ठाकार दिव्याभ आर्यन से तोपरिचित होंगे. बिहार के रहने वाले है, परहैं जरा सेंटी किस्म के आदमी. आधी उम्र तो बीत चुकी है जनाब की मगर, छोटी छोटी बातों का बुरा मान जाते हैं. जैसे कोई साँवली लड़की काली कह दिये जाने पर कुनमुना जाती है. मतलब अभी चिकने घडे नहीं हुए है अभी कि बिना असर डाले पानी नीचे बह जाये. पिछले दिनो किसी ने मुम्बई की लोकल ट्रेन में एक नया सत्यउनके सामने रख दिया- एक बिहारी सौ बीमारी . बिहारी होने के कारण आहत हो गये. इस देश में तो एक मेढक के टाँगमें चार धागा बांध कर ग्यारह बच्चे खींचते हैं और मजा लेते है:-). यही बच्चे बडे तो हो जाते है पर उनकी आदत नहीं जाती. मेढक नहीं मिलता है तो आदमी की टाँग में रस्सी बन्ध कर खींचते है.


मैं दिव्याभ आर्यन से मिला तो नहीं हूँ पर इनके एक छोटे भाई है जिनसे मेरी गहरी दोस्ती है. वे इनकी तरह बरास्ता दिल्ली आइ ए एस बगैरह बनने के प्रयास में टाइम खराब किये बिना सीधे मुम्बई आ गये थे.ये आये हैं फिल्मों, टी वी सीरियलों के डाइरेक्टर बनने पर छोटे भाई साहब का किस्सा अलग है. उनको कालेज केबदमाश और नाकारा ळडकों ने एक दिन् इस लिए खूब् मारा कि प्रिंसिपल की लड़की उस पर क्यों मरती है यह उन्हे लाख कोशिश करने पर भी समझ नहीं आ रहा था. जबकि उस लड़की पर डाइरेक्ट हक उस लडके का बनता था जो प्रिसिपल के मकान में बतौर किराये दार रह रहा था, किराया भी ऎडवांस देता था और शाम को बाजार से सब्जी वगैरह भी लाया करता था. तो गुन्डे लफाडियो से पिटाई खा कर इतने आहत हुए कि सीधे शहर के निकटतम रेल वे स्टेशनपर पहुँचे और यह कसम खाकर कि अब तो कुछ बन कर ही वापस आयेंगे सामने जो भी ट्रेन खडी ठीक उसमे सवार हो गये. साथ में थे कुछ कपडे और ढेर सारी कविताऑ की डायरी और कुछ किताबें. छोटे भाई साहब बेहद सम्वेदनशील हैं किंतु सेंटी बिल्कुल नहीं.मुम्बई आकर बहुत् दिनों तक फुटपाथ पर भटकते रहे और ये सोचते रहे कि इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यों है. एक मशहूर चित्रकार, जिनकी पेंटिंग करोड़ में बिकती है, उसे जावेद अख्तर के पास ले गये. जावेद जी ने कहा- तुम्हारा सर्टिफ़िकेट तो जरूर् नकली होगा. जरूर चोरी करके पास हुए होगे. पढ़ना लिखना आता है? इस तरह् एक कवि ने एक कवि का मुम्बई में जोरदार स्वागत किया. फिर कोई व्यक्ति उन्हें यू पी के एक बिजनेस मैन के पास ले गये. यू पी वाले ने कहा बिहार के हो? अरे सारे बिहारी तो चोर हैं. तो छोटे भाई साहब ने एक किस्सा सुनाया- जब मुम्बई आने के क्रम में ट्रेन में लेटे लेटे लखनऊ में उसकी नींद खुली तो उसके कलाई से घडी नदारद थी जो पिताजी ने दसवी की परीक्षा में अव्वल आने पर पिताजी ने दी थी.. तो यूँ तो सारे बिहारी चोर हैं पर छोटे भाई साहब के जीवन की सबसे पहली चोरी लखनऊ में हुई जो बिहार के बाहर है. मुम्बई पहुंचते ही उनका बैग गायब हो गया और स्टेशन के बाहर निकले तो पर्स का पता न था. ये स्टेशन भी बिहार में नहीं था. छोटे भाई साहब को मेरे एक दोस्त ने क्राफर्ड मार्केट में एक सेठ के यहाँ काम दिलाया. छोटे भाई साहब ने तीन चार महीने सेठ के यहाँ काम किया. उनका स्मगलिंग का धन्धा था. जब छोटे भाई सहब को पता लगा तो अपना दो महीने का वेतन छोड कर भाग निकले. बाद में उस सेठ से मुलाकात हुई तो मैने छोटे भाई साहब के वारे में पूछा. सेठ जी बोले- मैं तो पहले ही जानता था . सारे बिहारी चोर हैं. भाग गया.


तो साहब अगर कोई चोर को चोरी न करने दे , या चोरी करने में साथ न दे और रास्ता नाप ले तो चोर बन जाता है.


लालू यादव ने रेलवे को इसी तरह मुनाफे में पहुंचाया है. जितने सुराखो से चोरी हो रहे थी उन सुराखो को बन्द कर दिया. मगर लोग तो बस् यही कहते है. लालू यादव ही नहीं सारे बिहारी चोर है.


इसी साल नवी मुम्बई के नेरूल उपनगर में बसंत पंचमी को सरस्वती पूजा और कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया था. निर्माणाधीन बिहार भवन के प्रांगण में कार्यक्रम था. बिहारी लोगों को जो मिले वही ठगने की कोशिश में रहता है. माइक वाले ने पूरा पेमेंट लेकर भी घटिया साउंड सिस्टम भेजा था . बीच बीच में माईक मायके चला जाता था और कवि गण परेशान हो जाते थे. मंच पर संचालक अनंत श्रीमाली मौजूद थे और साथ में थे दिलदार और हर छे महीने पर कार बदल देने वाले और आज कलस्कोर्पियो में घूम रहेएक मात्र मुम्बईया हिन्दी कवि अरविन्द राही, लाफ्टर चैलेंज और कॉमेडी सर्कस वाले सुनील साँवरा, मुकेश गौतम, राजीव सारस्वत और मैं खुद. माईक बार बार जवाब दे ही रहा था एक बार बिजली भी चली गई. संचालक जी ने कहा अब जब बिजली भी चली गई तोलग रहा है कि हम वाकई कवि सम्मेलन के लिए बिहार आ गये हैं . लोगों ने खूब मजा लिया जिसमे आधे से ज्यादा बिहारी थे. तो भाई साहब बिहारी होते हैं मजा लेने के लिए. चाहे जैसी भी परिस्थिति हो मजा ले लो. दुःखी मत होओ. मैंने कई सारी कविताओं के पहले वही पर लिखी चार पक्तियाँ वही सुनाई जिसके लिए सारे श्रोताओं ने इतनी देर तक और इतनी जोर कीतालिय़ाँ बजाई जैसी मैने कभी नहीं सुनी थी. आप भी मुलाहिजा फरमाईए.


बिहार सिर्फ राज्य नहीं एक तीर्थ धाम है


बुद्ध महावीर सती सीता का वो ग्राम है


मुश्किलों से दो दो हाथ बिहारियों का काम है


चाणक्य चन्द्रगुप्त भी बिहारियों के नाम है


और घाटे वाली रेलगाडी दे रही मुनाफा अब


क्योंकि वहाँ भी बिहार वाले लालू की लगाम है


अरे एक एक बिहारी यहाँ सैकडों पे भारी है


ऐसे वीर बिहारियों को सौ सौ प्रणाम है.

19/7/07

सौ साल पहले मैं कर्जदार था

आपने कभी उधार लिया है. या ऐसे भी पूछा जा सकता है कि आपको कभी किसी ने उधार दिया है. उधारी के बडे किस्से हैं एक आदमी ने ट्रेन में किसी अंजान यात्री से उधार मांगा. अंजान आदमी बोला- आप मुझसे उधार कैसे मांग रहे है मैं तो आपको जानता नहीं, बन्दा बोला- इसी लिए तो आपसे मांग रहा हूँ.जो जानते हैं वो तो देते नहीं है. ऐसे ही एक स्कूल में शिक्षक ने गणित की क्लास में एक लडके से पूछा- मान लो मैने तुम्हारे पिताजी को 1200 रूपये पन्द्रह प्रतिशत ब्याज पर 6 महीने के लिए उधार दिया तो 6 महीने बाद तुम्हारे पिता जी कितना पैसा लौटायेंगे? लड़का बोला- तुम इतना सा गणित भी नहीं जानते. ळडका बोला – मैं गणित बहुत अच्छी तरह जानता हूँ . मगर आप मेरे बाप को नहीं जानते. किसी का लौटाया है जो आपका लौटायेंगे. तो उधार मांगना एक कला है. अगर आपको उधार मिल जाये तो आप सही कलाकार हैं. लेकर कभी न लौटायें तो आप सुपर हिट है. चलिए एक पैरोडी लिजिए. अगर आप बाथरूम टाइप के सिंगर है और इसे गाना चाहते हैं तो मुझे खुशी होगी. अगर रिकार्ड निकलवाना चाहे तो मुझे सूचित करें. पैरोडी मैंने इस तरह लिखी है.
सौ साल पहले मैं कर्जदार था, 2
आज भी हूँ और कल भी रहूंगा
माँ बाप बीवी बच्चों के
सिर का मैं भार था 2
आज भी हू और कल भी रहूंगा. उधार जब कोई मिल जाये
मेरी तबीयत खिल जाती है जब वापस करना हो तो
मेरी नानी मर जाती है
देने वालो का हरदम करता इंतजार था 2
आज भी हू और कल भी करूंगा सौ साल पहले...........
एक वार जो देते फिर
ता उम्र वे रोते हैं
वे जागा करते रातों को
हम चैन से सोते है.
मैं तो पैदाएशी ऐसा होशियार था 2
आज भी हूँ और कल भी रहूंगा
सौ साल पहले...........
इस घर में टी वी ,फ्रीज
और सोफा उधार से है हर हसीन जलवा
और मस्त बहार उधार से है उधार से ही लेने की
सौचता हर बार था 2 आज भी हूँ और कल भी रहूंगा
सौ साल पहले मैं कर्जदार था,

किस्सा अमिताभ बच्चन , रेखा और एक बकरी का

आप कलेक्टर हैं, आपके पिताजी कलेक्टर है या कि आप स्वय कलेक्टर साहब के पिताजी है इससे कोइ फर्क नहीं पड़ता. आप जरूर बहुत बडे तोप होंगे . पर निश्चित रूप से अपने बाथ रूम के अन्दर होंगे . आप जो भी तोप , तमंचा या तलवार हो किंतु अगर आप हिन्दी फिल्मों से वाकिफ हैं तो फिल्म सितारों के प्रति लोगों की दीवानगी से नावाकिफ नहीं होंगे.
एक बूढ़े कलेक्टर साहब मिले. मुँह के दाँत गिर चुके हैं. सेवा से रिटायर्ड हैं और अब पुराने दिनों की यादो की जुगाली करते हुए दिन बिताते है. गर्मी की छुट्टियों में गांव गया था तो उनसे मुलाकात हुई. एक दूसरे से मिलकर हम दोनों अति प्रसन्न हुए. फिल्म, साहित्य और कुल मिलाकर जिंदगी के अनेकानेक पहलुओ पर कई दिनों चर्चा चली. एक दिन उन्होंने एक घटना का जिक्र किया. बोले उमराव जान की शूटिंग लखनऊ में हुई थी. और जब शूटिंग हो रही थी वे तब वहाँ के जिला मजिस्ट्रेट थे. रेखा को उन्होने तब वही साक्षात देखा था और तब से अब तक वह उनकी आँखों के आगे गाहे बगाहे वही बोल बोल कर फुर्र हो जाती है कि दिल चीज क्या है आप मेरी जान लीजिए बस एक बार मेरा कहा मान लीजिए . वे शूटिंग के लिए वहाँ लखनऊ आयी थी. उन्होने रेखा के बहुत अनुरोध करने पर उसके साथ अपना एक फोटो भी अपने निजी कैमरे से निकलवाया था ताकि सनद रहे. और जब कैमरा कलेक्टर साहब का अपना था तो जाहिर है फोटोग्राफर भी उनका अपना ही रहा होगा. तो फोटो निकाली साहब के एक परम प्रिय चपरासी ने. जब फोटो साफ कराया गया तो चपरासी की फोटोग्राफी की प्रतिभा और कैमरे की विलक्षण क्वालिटी का पता चला. फोटो में न रेखा थी न कलेक्टर साहब थे. था तो बस आधे फ़ोटो में जमीन थी और आधे में आसमान था. इस तरह शेर गलत साबित हो रहा था कि
कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कभी जमीं मिलती है तो आसमां नहीं मिलता
इस तस्वीर में मुकम्मल जहां था , जमीन भी थी और आसमान भी था. बस नहीं था तो कलेक्टर साहब नहीं थे और रेखा नहीं थी. वह तस्वीर उन्होंने बड़े जतन से संभाल कर अपने अलबम में रखी हुई है जिसे देख कर हम भी धन्य हो गए.
मान लीजिए , क्योंकि मानने के अलावा और कोइ उपाय नहीं है. आप आज अमिताभ बच्चन से मिलें उनके साथ एक तस्वीर निकलवाने का सौभाग्य भी आपको प्राप्त हुआ. या तस्वीर भी छोडिये आपने अमिताभ बच्चन का साक्षात दर्शन किया. तो आप जिस दिन मृत्यु शय्या पर भी होंगे और चर्चा चलेगी तो आप झट उठ कर कहेंगे कि आपने अमिताभ बच्चन को करीब से देखा है और उनके साथ आपका फोटो भी है. अपने बेटे , पोते , पोतियों , नातियों , सब को जब जब आपको मौका मिलेगा बतायेंगे कि उनके साथ आपकी तस्वीर है .
मैने मुम्बई के एक फर्निचर शाँप में आमिर खान को देखा. लडकियाँ आस पास मडरा रही थी और लडके और बूढे लडकियों के आस पास मडरा रहे थे. तभी एक मुसलिम लड़की ने आमिर को देखा और देखते ही चिल्लायी – आ..........मिर भा..........ई........फिर चिल्लाती हुई उससे लिपटने के लिए उसकी और दौडती हुई भागी. मगर हाय रे किस्मत और हाय रे किस्मत की मार ! बेरहम सिक्यूरिटी वालों ने इस बिछडी हुई बहन को अपनी मंजिल तक पहुँचने से पहले ही रोक लिया. हालांकि बहन जी अपनी प्रूरी ताकत के साथ सिक्यूरिटी वालों से जूझ रही थी और लगातार आमिर भाई आमिर भाई चिल्लाये जा रही थी. शायद इसी का असर हुआ कि किसी तरह आमिर ने खुद आगे बढ़ कर उससे हाथ मिलाया और हाथ भी क्या मिलाया दोनो की दो- दो उंगलियां 1/10 सेंकेंड के लिए एक दूसरे को छू गयी होगी . और इतने में ही दोनों वहां मौजूद सिक्यूरिटी वालों की मदद से सदा के लिए जुदा हो गये. पांच फीट की लड़की फर्निचर शाप से बाहर निकली तो छे छे फिट ऊपर उछल रही थी. बल्कि लोगों ने देखा कि लड़की के पाँव आधे घंटे के लिए, जब तक वह वहाँ रही, जमीन पर पड़े ही नहीं.
लेकिन हम ठहरे निपट गाँव के आदमी. हमारे दादा जी जो अब नहीं रहे ने कभी कोई फिल्म नहीं देखी थी . वे अमिताभ बच्चन या रेखा को भी नहीं जानते थे. पिछले साल हम गाँव गये तो अपना डिजिटल कैमरा लेकर गये थे. लोगों की खूब तस्वीरे उतारी क्योंकि कोई खर्चा तो होना नहीं था. गाँव का फील देने के लिए कुछ लोगों से उन्हें अपने कन्धे पर आस पास बेवजह मिमिया रही बकरियो को उठा लेने को कहा. तस्वीरें अच्छी आयी. कुछ दिनों बाद फिर गाँव गये तो लोगों ने कहा कि हमारी भी एक तस्वीर बकरी के साथ निकालो. गाँव भर से बकरियाँ खोज खोज कर लायी गयी और हमने कई बकरियों और बच्चों की तस्वीरें निकाली. मेरी पाँच साल की बेटी गाँव से वापस मुम्बई के लिए चली तो खूब रोई. बोली एक बकरी साथ ले चलो. खैर बकरी तो नहीं ला पाये. पर ये यादे साथ आ गयी
तो कुल मिला कर कहने का मतलब ये था कि आज भी हमारे गाँव के बच्चो और बूढों के लिए एक बकरी अमिताभ बच्चन और रेखा से बढ़कर है क्योंकि उन्हें वे कन्धे पर बिठा सकते है, गोद में ले सकते है. बकरी उन्हें दूध भी देती है. आखिर गांधी जी ही तो इसी बकरी के दूध को हजार नियामत से बढाकर मानते थे . ये फिल्म स्टार तो उन्हें सुनहरे सपनों के सिवा कुछ दे नहीं पाते. चलिए चलते चलते वह शेर सुन लीजिए जो गांव की ही एक बकरी ने बड़ी मासूमियत के साथ मेरे कान में सुनाया था.

आप मेरा कत्ल करेंगे इसकी तो उम्मीद थी
पर उस दिन क्यों किया जिस दिन बकरीद थी.

17/7/07

एक मोटी की लव स्टोरी

हिरोइन परेशान थी. वह मोटी हो गयी थी और होती ही चली जा रही थी. पता नहीं पब्लिक मोटी हिरोइन को पसन्द करेगी या नहीं. पर पब्लिक तो बाद में. मालूम नहीं डायरेक्टर , प्रोड्यूशर भी पसन्द करें या नहीं. तभी सिग्नल पर हिरोइन को डायरेक्टर दिखा. डायरेक्टर भी काफी परेशान चल रहा था. फ्लाँप फिल्मो का उसका रिकार्ड कुछ ज्यादा ही लम्बा होता जा रहा था. कोई फायनेंसर उस पर निगाह डालने को तैयार न था और अंडर वर्ल्ड के पजामे के अन्दर तक अभी उसकी टाँग पहुंच नहीं पायी थी. ऐसे में हिरोइन की निगाह उस पर पड़ी तो उसकी आत्मा हरी हो गई. चूँकि अभी शाम नहीं ढली थी और रात का नशा पूरी तरह उतरा नहीं था इसलिए दोनों ने तय किया कि डिस्कसशन के लिए काँफी टेबल ज्यादा उपयुक्त रहेगा. दोनों ही बार को पार कर कैफे में घुसे . हिरोइन ने बैरे के आने से पहले अपनी फिक्र जाहिर की कि वह न चाहते हुए भी मोटी हुई जा रही है. डायरेक्टर बोला वह न चाहते हुए भी फ्लाँप पर फ्लाँप फिल्मे दिये जा रहा है. दोनों ने सोचा कुछ करना चाहिए और जब करना ही है तो क्यों न एक दूजे के लिए करे. डायरेक्टर बोला- मैं तुझे साईन करना चाहता हूँ..
हिरोइन मन ही मन खुश हुई पर उपर उपर बोली- मुझ मोटी को? डायरेक्टर बोला- हाँ . फिल्म का नाम है एक मोटी की लव स्टोरी. हिरोइन खुश हो गई तो डायरेक्टर ने उसकी खुशी कम करते हुए कहा- पर फायनेंस है नहीं इसलिए मैं कुछ दे नहीं पाउंगा. हिरोइन बोली- हम फ्रेंड है. तो फ्रेंड किस दिन काम आते हैं? मैं तुम्हारे बुरे वक्त में कुछ हेल्प करना चाहूँ तो ये तो मेरा हक बनता है. डायरेक्टर ने आँखों में शरारत भरते हुए पूछा- पूछोगी नहीं इस्टोरी क्या है.
हिरोइन बोली- आप भी मजाक करते हैं. पिछली बार इस्टोरी पूछी थी तो आपने मुझे फिल्म से ही आउट कर दिया था. डायरेक्टर खुश होते हुए बोला- गुड! तुम्हारा एप्रोच बिल्कुल प्रोफेशनल हो गया है.
वैसे मुझे भी मालूम नही कि कहानी क्या होगी. हो सकता है मैं किसी फाँरेन फिल्म से इस्टोरी लूंगा. काँफी की चुस्की लेते हुए डायरेक्टर ने बात आगे बढाई- इस्टोरी चूँकि है नहीं इसलिए तय है कि फिल्म में कुछ सीन नमकीन होंगे. कोई एतराज तो नहीं? हिरोइन बोली- सर पिछली बार एतराज किय था तो आपने मेरा रोल काटकर पाँच मिनिट का कर दिया था. मैं क्या पागल हूँ?( आखिरी वाक्य हिरोइन ने इस अन्दाज में कहा जैसे वह सचमुच पागल नहीं हो) हिरोइन ने सवाल क्या- हीरो कौन होगा? डायरेक्टर बोला- एक तो तू वैसे ही मोटी हो गई हो. दूसरे मेरे पास फायनेंस भी नहीं है. कोई हीरो राज़ी नहीं होगा. तो क्या बिना हीरो के फिल्म बनाओगे? मैं सोंचता हूँ अपने बडे बेटे को हीरो बना दूँ मगर बड़ा बेटा तो अभी बहुत छोटा है और बोतल से दूध पीता है. क्या तुम मुझे माँ का रोल दे रहे हो? डायरेक्टर बोला- नहीं वह तुम्हारे ब्वाय फ्रेंड का रोल करेगा. हम कम्प्यूटर की मदद से उसका डांस वगैरह दिखा देंगे. हिरोइन बोली- मगर बडी- बडी मल्टीस्टारर फिल्मे फ्लाँप हो रही है. एक मोटी हिरोइन और छोटे हीरो से फिल्म का क्या होगा? डायरेक्टर बोल- तुम चिंता मत करो. हमें प्लान करना पडेगा हिरोइन पूरे अटेंशन के साथ आगे झुक गाई तो डायरेक्टर बोली- फिल्म रीलीज होने से पहले तुम कानून का दरवाजा खटखटाओगी कि इस फिल्म मैं तुम जिंतनी मोटी नहीं हो उससे ज्यादा दिखाई गई हो. इतनी मोटी देखकर तुम्हारे फैन तुमसे नाराज हो जायेगे. वैसे ये अलग बात है कि तुम्हें ज्यादा मोटी देख कर तुम्हारे फैन और खुश होंगे. खबर की भूखी प्यासी मिडिया इस खबर लो ले उडेगी. हो सके और थियेटर मालिक राजी हो तो एक- आध जगह हम तुम्हारे फैन से थियेटर पर तोड फोड भी करा देंगे. फिर देखना कैसे होती है हमारी पिक्चर सुपर हिट! काँफी खत्म हो चुकी थी इसलिए दोनो मुस्कुराते हुए कैफे से बाहर निकल पडे हास्य व्यंग्य, फिल्म.