30/8/07

आज ना छोड़ेंगे

आज ना छोड़ेंगे



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बाये से है. राकेश जोशी, देवमणि पांडेय ,यूनूस खान्, देवमणि पांडेय, महेश दूबे, महेन्द्र मोदी, बसंत आर्य,वीनू महेन्द्र और बैठी है कांचनप्रकाश और कुसुम जोशी.


मौका होली का था.और साल 2007. होलीके लिए विशेष प्रोग्राम की कल्पना की थी विविध भारती मुम्बई के केंन्द्र् निदेशकमहेन्द्र मोदी जी ने और जोश था राकेश जोशी जी का. जब होली में सब यही कहते हैं किआज ना छोड़ेंगे तो भला रेडियो वाले कवियों को कैसे छोड़ सकते थे. रिकार्डिंग के लिएबुलाया गया मुम्बई के ही छै कवियों को. कवि गण थे बहुत भारी इसीलिए सोच समझ कर दीगई थी कार्यक्रम के संचालन की जिम्मेदारी . और वो दी गई देवमणि पांडेय को. कवि गणथे- सर्दी खाँसी न मलेरिया हुआ से प्रसिद्धि पाने वाले वीनू महेन्द्र, बनारस केलोटे की तरह मुम्बई में मौजूद सभी कवियों में मोटे महेश दूबे साहब. जिन्हे उनकेगोरेगाँव् फर्निचर से उठवाया गया था, जहाँ दिन भर बैठ कर वे भगवान का मन्दिर बेचाकरते हैं. जब ग्राहक दुकान में नहीं होते उस वक्त वे कविताये लिखते रहते हैं अगरकविताय़ें भी नहीं लिखना हो पाता तो वे बाल ठाकरें जी के हिन्दी अख़बार दोपहर कासामनाके पाठकों के सवालों से रू ब रू होते हैं और डाईरेक्ट ऐक्शनलेते है जो किउनके कॉलम का नाम है. इस बात से उनकी प्रसिद्धि और बढी है कि वे अब बाल ठाकरे केबाद दूसरे शख्स हैं जो डाएरेक्ट ऐकशन लेते है.. उन्हें ज्यादा कमाई कविता से होतीहै या दुकान से ये मुम्बई के सारे हास्य कवियों की उत्सुकता का विषय है. अम्बरनाथसे दौड़े हुए आये थे दिनेश बाबरा जिसके बारे में मुम्बई के कवियों का ये मानना है किपाँच फिट के उसके शरीर में हर अंग में दिमाग है और इंतना ज्यादा दिमाग होने केबावजूद वो बददिमाग़ नहीं है. विनम्र बहुत है और सबसे झुक कर मिलता है और मिलकर तनतानहीं है. इसीलिए लोग कहते हैं कि बहुत जल्द वो कॉलेज की नौकरी छोड़ेगा और मुम्बई मेंफ्लैट बुक करा कर आराम से कविताई करेगा. एक कवि मैं स्वयं था - बसंत आर्य. एककवयित्री भी थी- कुसुम जोशी. ये कई जगहों पर अपनी टाँग फँसाये रखती हैं . सीरियलबनाती हैं. ऐड फिल्म बनाती हैं और हर रस की कवितायें करती हैं. गाती तो अच्छा हैही. वे इंतनी अच्छी दिखती हैं तो खुद अभिनय क्यों नहीं करती ये लोगों के लिएआश्चर्य का विषय है. आज ही उन्हे उनके लड़के ने नया नया मोबाईल दिया था जिसे कैसेओपरेट करना है ये प्रोग्राम के संचालक महोदय उन्हे सिखा रहे थे. नम्बर कैसे रिडायलकिया जाता है ये सीखने के बाद कुसुम जी ने कहा- आज के लिए बस इतना काफी है तो यूनूसखान ने कहा आज न छोड़ेंगे. विविध भारती के दो कॉम्पेयर_ यूनूस खान( अजी अपने वही ब्लाँगर रेडियोवाणीवाले.क्या आवाज है हुजूर की. जी करता है न कि सुनते रहें) जो यूथ्एक्स्प्रेशलेकर युवाओं में लोकप्रिय हैं और सखी सहेलीजिसे लेकर कांचन प्रकाशयुवतियों में चरचा का विषय बनी रहती है- की उर्जा को देख कर सारे कवि दंग थे. कांचनजी का चुलबुलापन अपने चरम पर था. कार्यक्रम की रिकार्डिंग में सभी कवि मजा लेते रहेक्योंकि ये मंच से हट कर एक अलग अनुभव था. बीच में हास्य कवियों के पितामह काकाहाथरसी की कुछ रिकार्डिंग सुन कर कवि धन्य हुए . वीरेन्द्र तरून जी के फाग छन्द सुनकर हम भी धन्य हुए. कार्यक्रम का प्रसारण हुआ 4.3.2007 को दिन में 3 बजे से पाँचबजे के दौरान. चिट्ठियाँ और फोन कॉल आये सिर्फ उन लोगों के जिन्हे हमलोगों ने फोन कर कर के कहा था कि जरूर सुनना ये प्रोग्राम क्योंकि इस टीवी के जमाने में रेडियो सुनता कौन है. और जो सुनते हैं उनके पास फोन नहीं है. सो न उन्हें मैने सुनने के लिए कहा और न ही सुनने के बाद उन्होने कहा कि उन्होने सुना. सुन रहे हैं न!



27/8/07

रानी मुखर्जी साँवली है और रेखा तो एकदम काली

साँवली

यों तो मुहल्ले में कोई भी नई लड़की आये तो लड़कों में दस दिनों तक आहें भरा जाना अनिवार्य है. पर इस बार ऐसा कुछ नहीं हुआ. क्योंकि चम्पा साँवली था और साँवली लड़की में रूचि दिखा कर कोई भी अपनी घटिया पसन्द का प्रदर्शन नहीं करना चाहता था. हाँ, यह बात अलग है कि उसकी अनारो मौसी के साथ सिर्फ मैंने ही चाची का रिश्ता नहीं गाँठ लिया बल्कि पड़ोस के और भी बहुत से लोगों की बुआ , अम्मा , दादी , नानी और ना जाने क्या क्या हो गयी वे.
उसके साँवली होने के कारण अनारो चाची के घर में भी इस बात की चर्चा प्रायः चलती . चम्पा मुझ से कहती- अच्छा बासु, रेखा काली है न? मैं समर्थन में सिर हिला देता तो वह कहती- और रानी मुखर्जी?. मेरे हाँ कहते ही वह दौड़ती हुई सबको ची के पास बुला कर लाती और कहती - देखो, रानी मुखर्जी साँवली है और रेखा तो एकदम काली. फिर भी फिल्मों में काम करती है. पिछली बार ही टी.वी. पर उसकी फिल्म आयी थी. मै तो काली भी नहीं हूँ , साँवली हूँ.
ची कहती - अरे तो क्या तुम्हें कोई फिल्मों में काम करना है. पहले हाथ.....तभी कोई कह देता - रेखा की तो शादी भी नहीं हुई. हुई भी तो.......
फिर चम्पा की आंखों में उदासी के मोती झिलमिलाते . कभी गिर पडते . कभी दिल में अटक कर रह जाते. ची कहती - अरे मेरी बेटी के लिए चाँद सा दूल्हा आयेगाकोई हृदयहीन फिर कह बैठता - चाँद से दूल्हे की अम्मा अपने घर में नौकरानी भी गोरी देख कर रखती है.
फिर कई बरस बीते . मुझे कई जगह अप्लाई कर रिप्लाइ का इंतजार करते - करते दिल्ली में एक नौकरी मिल गई. पर चम्पा को अपनी जिन्दगी के लिफ़ाफ़े पर लिखने के लिए कोई भी पता नहीं मिला. कभी ची झुंझलाती - अरे राम जे भी तो काले थी. किसी ने उनसे कह दिया कि दिल्ली में शहनाज हुसैन रहती है. वह चम्पा को गोरी बना सकती है. वे मेरे पास आई और बोली - बासु बेटा अगली बार दिल्ली से आना तो शहनाज हुसैन से गोरी होने की दवाई लेते आना.दिल्ली जाकर मैंने चम्पा के बारे में बहुत सोचा और एक ही निष्कर्ष पर रूक - रूक गया. बहुत खूबसूरत मगर साँवली सी. मुझे बचपन में खेले गुड्डे गुडियों का खेल स्मृत हो आया और गुड्डे की जगह खुद की कल्पना कर रोमांच .
दिल्ली से वापस आते समय मैं जान बूझ कर गोरे पन की दवाई नहीं लाया.ची बोली - क्यों बासु बेटा , तुम्हें चम्पा की कोई फिक्र नहीं? तुम उसके हाथ पीले नहीं देखना चाहते न?
मैं झिझकते हुए कह बैठा - देखना क्यों नहीं चाहता , मगर इसके लिए उसे गोरी होने की क्या जरूरत है. मुझे तो वह साँवली ही.......सुनते ही ची का मुँह खुशी और आश्चर्य से खुला रह गया पर चम्पा परदे के पीछे शर्म से लाल हो गयी.

कवि सम्मेलन आयोजक

आदरणीय ग़ाडियाजी,
नमस्कार् !
आपको यह पत्र लिखने की जरूरत इसलिए महसूस कर रहा हूँ क्योंकि पिछले कई सालों से परिवार काव्योत्सव का निमंत्रण आप भेजते रहे है और मैं कई सालों से नियमित पुरस्कार समारोह और कवि सम्मेलन का आनन्द उठाता रहा हूँ. इस बार भी आपने निमंत्रित किया और इस बार भी मैं आया बल्कि अपने और भी कई काव्य रसिक दोस्तों के साथ आया. मैं जहाँ बैठा था, जाहिर है उसके आगे पीछे भी श्रोतागण बैठे थे. देर से शुरू हुए कार्यक्रम के दौरान उनसे मारवाडी और हिन्दी में जो प्रतिक्रिया सुनने को मिली उनसे आपको भी दो चार् कराना अच्छा रहेगा.
एक तो ये थी कि यार, इस प्रोग्राम में नेता वेता नहीं आते ये तो अच्छी बात है, पर भाषण इतने लोगों के होते हैं कि वो भी कसर पूरी हो जाती है. और सच में कविता शुरू होते - होते सिर दर्द शुरू हो जाता है. ग़ाडियाजी वैसे मैंने भी कुछ - कुछ् ऐसा ही महसूस किया. चलिए संस्था के लोगों ने कुछ बोला वो तो जरूरी था, क्योंकि आप लोग इतना बड़ा प्रोग्राम करते है. अपनी भावनायें व्यक्त करना ही चाहिए. लेकिन कवियों को भी, जो काव्य पाठ्य करने ही वाले थे, उनसे भी वक्तव्य देने को कहा गया तो श्रोताओं के सब्र का बाँध टूट गया था. उन्होने मन ही मन गालियाँ नहीं दी हो तो उनका शुक्रगुजार होना चाहिए. कवि का वक्तव्य उसकी कविता ही है. उसे जो कहना है अपने काव्य पाठ के दौरान बोल सकता है. कवि तो कवि आप लोगों ने तो संचालक महोदय तक को वक्तव्य देने को माइक सौंप दिया. जब संचालक हर कवि के आने के पहले और जाने के बाद बोलने ही वाला है तो फिर वक्तव्य दिलवाने की आवश्यकता नहीं थी ऐसा अधिकतर लोगों का कहना था जो उन्होने फुसफुसा कर या बुदबुदा कर् कहा, ताकि आप सुन नहीं सके. संचालक की बात चली तो एक बात और है. इस कार्यक्रम में दो - दो संचालक रहते है. पहले सत्र का संचालक और दूसरे सत्र का संचालक. ऐसा लगता है जैसे पहले सत्र का संचालक दूसरे सत्र के संचालन की ट्रेनिंग ले रहा है. या टेस्ट मैच से पहले वन डे खेल रहा है.
हाँ, एक बात पर जोर की हंसी मेरे आस पास गूंजी थी. एक श्रोता ने मारवाडी में कहा- “यार ये सचदेव जी को जुबान की कब्जियत है क्‍या, बोलते हैं तो बात बीच में ही अटक जाती है.”
कि ये हर साल, बल्कि सोलह सालों से वही वही शेर, वही वही कवितायें कोट करते आ रहे है और इसलिए जब कवि हर साल बदलते रहते है तो संचालक हर साल वही क्यों रहता है.
चलिए ये तो अलग मसला है कि एक श्रोता सत्तन के संचालन को बेहतर बताता है और दूसरा उसे नौटंकीबाज बताता है., पर एक बार लोगों ने जरूर् कहा कि वे सुनील जोगी को और सुनना चाहते हैं. लोगों ने शोर भी मचाया, आवाज भी लगायी. पर संचालक जी ने श्रोताओं से कहा- आप मत भूलिए कि आप मेहमान है और हम मेजबान हैं हम जो परोसेंगे वही आपको खाना पडेगा. अरे साहब आपको कौन मना कर रहा है आप जरूर् परोसिये. पर मान लीजिए आपने किसी को घर पर खाने को बुलाया और मेहमान को पनीर की सब्जी जरा ज्यादा अच्छी लग गयी तो क्या आप कहेंगे कि हम मेजबान है जो परोस रहे है. खाईए. मेहमान जब् भगवान की तरह होते है तो उनका मान भी रखना पड़ता है. एक, सिर्फ एक कविता और सुनवा दी गई होती तो लोगों ने और कवियों को भी और ज्यादा ध्यान और प्रेम से सुना होता .
चलिए फुरसत थी. कुछ बातें हो गयी. एक अच्छे आयोजन के लिए आपको सिर्फ बधाई नही देता आपका शुक्रिया भी अदा करता हू. विदा लेता हूँ.
बसंत आर्य

हमने बेचारे माँ बाप को परिवार से छाँट दिया है

पिछले दिनों
अखबार में ये खबर पढकर
कि मुम्बई के मालाबार हिल इलाके की
एक बहुमंजिली इमारत से कूद कर
दो वृद्ध दम्पत्ति मर गये
मेरे दिल मे उदासी
और आंखों में आंसू भर गये
बहुत देर तक मैं उनके बारे में
सोंचता रहा
और उनकी ही बिल्डिंग के नीचे पडे
उनके मृत देह का दृश्य
मुझे कचोटता रहा
तब मुझे लगा
कि आजकल
हम अपने दायरे में
कुछ इस कदर सिमट गये हैं
कि हमे जन्म देने वाले
माँ बाप से ही हम कट गये हैं
हम दो हमारे दो के इस नारे ने
बस इतना भर किया है
कि परिवार का मतलब
सिर्फ मियाँ बीबी और
बच्चे भर रह गया है
हमने उन दोनो बेचारे माँ बाप को
परिवार से छाँट दिया है
किसी लैंड लाइन का
कनेक्शन समझ कर काट दिया है.
आजकल हर किसी के दिमाग में
यही घर कर रहा है
कि उसका काम तो मोबाईल से चल रहा है
और वो फालतू मे
हर महीने लैंडलाइन का बिल भर रहा है
लेकिन हम ये भूल जाते हैं
कि माँ बाप चाहे कहीं भी रहें
हम पल भर भी
उनके आशीर्वाद के कवरेज एरिया से
बाहर नही जाते हैं
और तो और
अरे ये मोबाईल का कनेक्शन लेते वक्त भी
ये लैंडलाइन ही है
जिनके बिल हमारे काम आते हैं
हम अगर समय पर नहीं चेते
तो अपने किये का नतीजा भुगतेंगे
सिर्फ और सिर्फ पछतायेंगे
उस दिन कुछ भी नही कर पायेंगे
जिस दिन हमारे बच्चे
खुद हमारे नेट वर्क ऐरिया के
बाहर चले जायेंगे.

23/8/07

एक नेताजी, एक श्मशान और उसका उद्घाटन.

केंन्द्र से लेकर ग्राम पंचायत तक, जहाँ भी देखो निर्माण ही निर्माण चल रहा है. लेकिन सारे निर्माण की तब तक कोई महत्ता नही है, जब तक किसी मंत्री जी के हाथों से उसका उद्घाटन न हो जाये. कई महीनों तक मुम्बई मे एक फ्लाई ओवर का उपयोग शान से शहर के आवारा कुत्ते करते रहे पर आदमियों को उसका उपयोग करने की मनाही थी क्योकि उसके उद्घाटन के लिए कोई बड़ा मंत्री नही मिल पा रहा था. मंत्रियों की भी बुरी हालत है. इतने निर्माण , इतने उद्घाटन . कहाँ कहाँ मारे-मारे फिरते रहें.
पर बिना उद्घाटन के निर्माण का महत्व ही क्या है? निर्माण का महत्व तभी है जब कोई बडा नेता शिलान्यास करे, बडे बडे ठेकेदार निर्माण करें और बडे बडे मंत्री उसका उद्घाटन करें . फिर जनता उसका उपयोग करे तो कितना अच्छा लगता है.. पिछले दिनों मुम्बई मे एक अजीब वाकया हुआ. नगरपालिका ने श्मशान घाट का निर्माण करवाया पर उसके उद्घाटन के लिए कोई मंत्री खाली ही नही मिल रहा था. जो खाली रहा होगा, वह राजी नही हुआ होगा . पर चूँकि देश उद्घाटन के बुखार से ग्रस्त है, इसलिए वह भी जरूरी था. तो नगरपालिका वालों ने एक वरिष्ट पुलिस अधिकारी के समक्ष उद्घाटन का प्रस्ताव रखा. पर अधिकारी ने भी इनकार कर दिया. पता नही श्मशान के उद्घाटन की समस्या कैसे हल हुई पर मैने गौर से सोंचा कि श्मशान के उद्घाटन का सही तरीका क्या हो सकता है? एक तरीका तो यह हो सकता है कि उद्घाटनकर्ता खुद् जाकर वहाँ अपनी अंत्येष्टि करवा ले पर इसके लिए शायद ही कोई राजी हो.
दूसरा तरीका यह भी है कि आपके उद्घाटन करने के लिए कोई मुर्दा लाया जाये. उसे आप प्रेम से चिता पर लिटा कर मुखाग्नि प्रदान करें. लेकिन ऐसे मे एक समस्या यह भी है कि सही वक्त पर कोई मुर्दा ही नही मिले. खैर , जो भी हो कितना अच्छा लगता , जब चारों ओर उद्घाटनकर्ता के स्वागत एवं सम्मान मे बडे बडे बैनर लगे हो “ श्री श्री फलाँ फलाँ का हमारे श्मशान मे सहर्ष स्वागत है,” मरने के बाद चाहो भी तो स्वागत के बैनर तो लगने से रहे.
वैसे अब श्मशान या कब्रिस्तान भी हमारे समाज मे पैकेज का हिस्सा बनते जा रहे है. एक बिल्डर ने अपने प्रोजेक्ट की विशेषताओं का बखान विज्ञापन मे इस तरह किया,” बाजार, अस्पताल, स्टेशन , सिनेमा हाळ, पुलिस चौकी और श्मशान पांच मिनट की दूरी पर.” वसे अमरीका वगैरह मे तो कब्रिस्तान की भी जबरदस्त मार्केटिंग होती है. वहाँ कब्रिस्तान भी इस तरह सजे रहते है कि बाहर से गुजरने पर लगता है जैसे अन्दर शादी के मंडप मे कोई नवयुगल को फेर करवा रहा होगा. ऐसे ऐसे सुंदर , डिजाइनदार कब्रिस्तान होते हैं कि सौन्दर्य प्रेमी व्यक्ति हुआ तो वह जानबूझ कर मर जाये.
ऐसे ही एक सजे – धजे रमणीय कब्रिस्तान मे एक बार मै यह सोचकर घुस गया कि अन्दर शायद कोई पार्टी चल रही है. बाहर फूलों , मोमबत्तियों और अन्यान्य चीजों की दुकानें सजाये विक्रय बालायें मुस्कुरा रही थी. मै अन्दर गया तो देखा कि कब्रें भी इस कदर खूबसूरत है कि अपना तो मकान भी उसके आगे कुछ नही. कोई कब्र फूलों से ठकी है तो कोई गुलदस्तों से अटी पडी है. पर आप यह न समझ ले कि इन विदेशियो के मन मे अपने से बिछुडी आत्माओं के लिए बहुत प्यार उमड रहा है. दरसल होता यह है कि जैसे ही मरने के बाद कोई शव कब्रिस्तान मे लाया जाता है कब्रिस्तान का मार्केटिंग विभाग मुर्दे के साथ आये लोगो का अता पता , ईमेल ऐड्रेस आदि ले लेते हैं. फिर हर साल ऐन वक्त से चार दिन पहले उन्हें ई मेल भेज देते हैं.” महोदय, फलाँ फलाँ दिन को आपके चाचा , मामा, पिता या आपकी पूर्व पत्नी की पूण्यतिथि आ रही है. आप अपनी व्यस्त दिनचर्या से समय निकालने मे असमर्थ हो अथवा उस दिन अपनी नई गर्लफ्रेंड के साथ डेतिंग पर जा रहे हो तो हम आपकी ओर से उनकी कब्र पर पुष्प गुच्छ चढा देंगे. इसके लिए आपको इतनी राशि का भुगतान करना होगा.”
भला आदमी क्रेडिट कार्ड से इंटरनेट के जरिए पेमेंट कर देता है. कब्र पर फूल चढ जाते हैं. मोमबत्तियाँ जलने लगती है.
मै कब्रिस्तान से बाहर निकल रहा था तो कुछ लोगों ने मुझे घेर लिया और बोले, “ क्या आप अपने बच्चों से प्यार करते हैं?”
अब कौन महामानव होगा जो इसका उत्तर ‘न’ में देगा. मैने जैसे ही हाँ मे सिर हिलाया वे बोले, “ हमारी कम्पनी मे एक स्कीम है. इसके तहत एक छोटी सी राशि का भुगतान आपको हर वर्ष करना है. यह छोटी सी रकम बढकर एक दिन बहुत बडी हो जायेगी.. यह रकम आपके मरने के बाद आपके अंतिम संस्कार के काम आयेगी. अब आप ही सोंचिए आपकी अंत्येष्टि पर आपके बच्चों को कुछ भी खर्च नही करना पडेगा तो उन्हे कितनी खुशी होगी.”
मैने मार्केटिंग की उस महान आत्मा को प्रणाम किया और पूछा कि क्या इस स्कीम का उद्घाटन हो चुका है या मुझसे ही इसका उद्घाटन होना है, तो महान आत्मा ने बताया कि इस स्कीम के उद्घाटन का श्रेय उनके पिताजी को जाता है.
वैसे सही मायने मे उद्घाटन की स्थिति बहुत चिंतनीय है. संगीत के कार्यक्रम का उद्घाटन बहरा व्यक्ति कर्ने आ जाता है. नाई की दुकान का उद्घाटन करने जो नेता आता है वह गंजा होता है. असल मे उद्घाटन का सही तरीका होना चाहिए . जैसे होटल का उद्घाटन करना है तो उद्घाटन कर्ता खाना खाकर और खास कर बिल चुका कर होटल का उद्घाटन करे
नारियल फोडलर और फीता काटकर उद्घाटन करने का अन्दाज कुछ पुराना सा लगता है. वैसे भी ऐन मौके पर नारियल इतना कडा निकलता है कि मंत्री जी के नाजुक हाथों से पटकने पर फूटने का नाम ही नही लेता . कई बार तो कैची इतनी भोथरी होती है कि जवाब नही.
ऐसे मे मुझे एक ऐसे उद्घाटन की याद आ रही है जो वहाँ उपस्थित लोगो को भी बहुत पसन्द आया या. दिल्ली मे एक सुलभ शौचालय का उद्घाटन होना था. उद्घाटन कर्ता ट्रैफिक मे कही फंस गये.
आते आते कई प्राकृतिक आवश्यकतायें उनके धैर्य की परीक्षा ले रहे थी. परिणामस्वरूप वे जैसे ही उद्घाटन स्थल पर पहुचे , आयोजकों को धकियाते हुए एक शौचालय के अन्दर घुस गये. पांच मिनट बाद बाहर निकले तो उनके चेहरे पर असीम शांति थी. लोगों ने पूछा तो उन्होने सहज भाव से कहा कि उन्होने बिल्कुल सही किया है और शौचालय के उद्घाटन का इससे बेहतर तरीका हो ही नही सकता था. अब यह अलग बात है कि जल्दबाजी मे मंत्री महोदय ने महिला शौचालय का उद्घाटन कर दिया.था.
इससे यह बात भी साफ हो गई कि मत्री महोदय को जिस चीज ( उद्घाटन ) का सबसे ज्यादा अनुभव होता है वह काम भी उनसे सही तरीके से नही हो सकता . आपका क्या ख्याल है?

20/8/07

ये बात भी झूठी है

आप कहते हैं
ये दुनिया झूठी है
यहाँ के लोग झूठे हैं
उनकी बातें झूठी है
फिर ये बात सच्ची है
इसकी क्या गारंटी है
सच तो ये है
कि ये बात भी झूठी है.

16/8/07

दूसरा ईसा मसीह


कच्ची नींद से जागता हूँ
काम पे भागता हूँ
यहाँ वहाँ भटकता हूँ
रोज सूली पर लटकता हूँ
सोंचता हूँ

जब हम नहीं रहेंगे
लोग हमें कहीं
दूसरा ईसा मसीह तो नहीं कहेंगे.

12/8/07

चूहेदानी




एक चूहे को
मैने चूहेदानी मे पकड़ा
पकडे जाने पर
उसकी छटपटाहट देख
मै भी छटपटा उठा
और चूहेदानी खोल दी
सोंचता हूँ
मैंने चूहे को पकड़ा जरूर
पर आखिर में चूहे ने मुझे पकड लिया


8/8/07

पत्नियाँ पतियों को क्यों डांटती रहती है?

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पिछले दिनों फ्रेंडशिप डे आया तो मोबाइल पर कई दोस्तों के सन्देश आये. कुछ मित्रो को हमने भी सन्देश भेजे. एक दोस्त ने बंबइया हिंदी में कुछ उस तरह इजहार ए मोहब्बत की-


गॉड अपुन से पूछा किधर जाना मंगता? स्वर्ग या नर्क? अपुन बोला- नर्क. अपुन को मालूम, तुम साला दोस्त लोग उदरिच मिलेंगा. बोले तो जिधर तुम होयेंगा अपुन का स्वर्ग उदरिच .


एक संदेश ऐसा था जो अगर किसी पुरूष मित्र ने भेजा होता तो हम मजा लेकर रह जाते, पर यह संदेश एक महिला मित्र ने भेजा था.( महिला मित्र से मेरा मतलब उस तरह के पुरूष मित्र से है जिनकी बहुत ज्यादा महिलायें मित्र होती है.) संदेश छोटा सा था-


दोस्त के बगैर जिंदगी वैसी ही है जैसे वक्ष के बगैरस्त्री.


हम तो अब तक इसी दुविधा में है कि हम उनके लिए पहले क्या हैं. और वे हमारे आकार , प्रकार , व्यवहार आदि से कितने खुश है.मुझे उसी क्षण प्रसिद्ध तमिल लेखिका चूडामनी राघवन की कहानी श्री राम की माँ की नायिका याद आ गयी जो सड़क पर चलती थी तो इस कदर सीना तान कर मुस्कुराती थीजैसे कोई विशाल साम्राज्य की महारानी अपने साम्राज्य की विशालता पर मन्द मन्द मुस्कुराती है. जब उसका लड़का अपनी प्रेमिका को उससे मिलवाने घर लेकर आता है तो वह उसके सपाट सीने को देखकर सोंचती है कि उसके लडके को इस लड़की में आखिर दिखा क्या?


वहरहाल् गजब कई हुए उस दिन. मेरी बिटिया सेफी मुझे बाजार लेकर गई. अपनी दोस्तों के लिए फ्रेंडशिप बैंड खरीदने. उसने अपने दोस्तों को ख्याल में रखते हुए बताया कि इतने बैंड चाहिए. हालाँकि इसे वह राखी समझ रही थी. खैर जितने उसने बताये मैने उससे एक ज्यादा बैंड खरीदा.


बिटिया बोली- एक अधिक किसके लिए?


मैने कहा- मेरे लिए.


बिटिया बोली- आप किसे बाँधेंगे?


मैने कहा- तुम्हारी मम्मी को.


बिटिया बोली-मम्मी क्या आपकी दोस्त है?


मैंने कहा- हाँ वो मेरी बेस्ट फ्रेंड है.


इसके बाद बिटिया ने एक मासूम सा सवाल किया जिसका जवाब मुझे आज तक नहीं सूझ रहा है. उसने बड़ी सरलता से पूछा- मम्मी अगर आपकी दोस्त है तो फिर वह आपको डांटती क्यों रहती है?:-D


अब कौन बनेगा करोड़पति में अमिताभ बच्चन साहब ने भी किसी से यह सवाल नहीं पूछा क्योंकि ये तो सौ करोड का सवाल है. आपके पासअगर जवाब और अनुभव हो तो बताएं कि पत्नियाँ पतियों को क्यों डाँटती रहती है?


वैसे ये अलग बात है कि वह बैंड मैं अपनी पत्नी की कलाई पर नहीं बाँध पाया क्योंकि इसी बीच मेरी बिटिया ने एक और नयी दोस्त बना लिया और मुझ से बैंड छीन कर उसकी कलाई पर बाँध आई. तस्वीर में वह नई दोस्त एक पुरानी दोस्त के साथ अगल बगल दिख रही है

7/8/07

दुनिया के पुराने सात आश्चर्य

दुनिया के सात आश्चर्यों की बड़ी चर्चा रही पिछले दिनों. पर मेरे दोस्त रवीन्द्र प्रभात ने जिन नये सात आश्चर्यों की चर्चा की तो मुझे लगा ये तो आठवाँ आश्चर्य है कि दुनिया जिन चीजों को सात आश्चर्यों में शुमार करती है वे दरअसल एक बचकानेपन की बात है. लिजिए उनकी जुबान से ही सुनिये-
प्रिय बसंत जी,
आज मैं जीवन के जिन सात आश्चर्यों की चर्चा करने जा रहा हूं उन्हीं सात आश्चर्यों में से
एक है हँसना और हँसने का हीं उत्कृष्ट रूप है ठहाका. यही दुआ है कि ठहाका के मध्यम
से मिलने- मिलाने का यह माध्यम बना रहे..

आपने मेरे बारे में जो लिखा है, उतना सौभाग्यशाली मैं हूं नहीं, यह तो आपकी महानता है जनाब, जो इतना महसूस किया...... पिछले दिनों ताज को दुनिया के सात अजूबों में मार कराने के लिए भारत के लोगों ने काफ़ी मशक्कत की. अच्छी बात है, पर यदि हम अपने भीतर की यात्रा करते हुए जीवन के सात अजूबों का एहसास कर सकें , तो इसमें कोई संदेह नहीं कि जीवन बहुत हीं ख़ूबसूरत और सारगर्भित हो जाएगा . अब आप कहेंगे कि जीवन के सात अजूबे कौन से हैं? तो मेरा जवाब यही होगा कि वह है-देखना,सुनना, स्पर्श करना, महसूस करना,हँसना,रोना और प्यार करना.
चौंक गये क्या जनाब ? चौंकिए मत, यही सच है. इस दुनिया को देख पाना एक सुखद आश्चर्य है, जिसने दुनिया को विविधता का रंग दिया, उसी ने हमें देखने की शक्ति दी .हम हिमालय की उँचाई को देख सकते हैं, ताजमहल की खूबसूरती को निहार सकते हैं, वहीं सड़क पर पड़े कचरे को भी देखते हैं. हमारे पास अंदर झाँक ने की शक्ति भी है, जिससे हमें अपने भीतर मौजूद असीमित संभावना दिखती हैं,जो दुनिया को ख़ूबसूरत बना सके. उसी प्रकार हमारे पास सुनने की अद्भुत क्षमता है. हम बादलों के अट्टहास सुन सकते हैं, तो चिड़ियों के कलरव भी, हम दुनिया की भी सुनते हैं और अपने मन की आवाज़ को भी. इसलिए सुनना जीवन का दूसरा सबसे बड़ा आश्चर्य है.
मनुष्य का जीवन बड़ा क़ीमती है, पर सुनना नही आया तो जीवन का कोई उपयोग नहीं.राह पर चलते हुए हर राहगीर को सड़क पर गिरे सिक्के का स्वर अचानक अचम्भित करता है, किंतु वहीं राह के किनारे किसी घायल की व्यथा के मौन स्वर सुनने का भान शायद किसी- किसी को प्राप्त है. सुनना एक ऐसी पारस मनी है, जो अंदर से बाहर तक मनुष्य को स्वर्णयुक्त बना देता है. छूना अर्थात स्पर्श करना एक ऐसी शक्ति है, जो व्यक्ति के भीतर उर्जा का संचरण करती है. यदि कोई दुखी है, पीड़ित है और उसके कंधे पर हाथ रख दिया जाए, तो निश्चित रूप से उसकी पीड़ा कम हो जाएगी. रोते हुए बच्चे को अचानक माँ द्वारा गोद उठा लेना और संस्पर्श का एहसास पाकर बच्चे का चुप हो जाना यह दर्शाता है कि स्पर्श हमारा भावनात्मक बल है.
इसी प्रकार महसूस करना अर्थात भावनात्मक होना मनुष्य की आंतरिक जीवन दृष्टि है, जहाँ आकार लेता है जीवन मूल्यों का सह अस्तित्व, क्योंकि कहा गया है कि जिससे हमारी भावना जुड़ जाती हैं, उसकी प्रशंसा करने अथवा प्रशंसा सुनने में भावनात्मक संतुष्टि मिलती है. यही है जीवन का चौथा आश्चर्य. उसी प्रकार हँसना प्रकृति के द्वारा प्रदत एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. हँसना एक चमत्कार है, आश्चर्य है, क्योंकि हँसने से जहाँ ज़िंदगी के स्वरूप और उद्देश्य का भाव प्रकट होता वहीं नीरसता , उदासीनता और दुख का भाव नष्ट करते हुए आनन्द्परक वातावरण का निर्माण करता है. यह भाव केवल मनुष्य में ही होता है. उसी प्रकार जब आदमी रोता है तब सबसे ज़्यादा सच्चा होता है, उजला होता है. रोना
कायरता नहीं है,
खूद का सामना करने की ताक़त की निशानी है. राष्ट्र कवि दिनकर ने कहा है, कि जिसका
पुण्य प्रबल होता है वही अपने आँसू से धूलता है. इसलिए रोना छठा सबसे बड़ा आश्चर्य
है. कहा गया है, कि लगाव, दोस्ती,इश्क़,ममत्व और भक्ति हमारी पाँच उंगलियाँ है,. जो
जीवन की मुट्ठी को मजबूत करती है. किसी कठिनाई और समाधान के बीच उतनी हीं
दूरी है, जितनी दूरी हमारे घूटनों और फ़र्श में है, जो घुटने मोड़कर ईश्वर के सामने झुकता
है, वह हर मुश्किल का सामना करने की शक्ति पा लेता है. यही है प्यार, जो जीवन का
सातवाँ आश्चर्य है. शायद हमारी बातों से सहमत हो गये होंगे आप?

रवीन्द्र जी की इस सोंच को मैं नूतन कपूर के इस शेर से खत्म करता हूँ आँखों से तो केवल उसका आना जाना था उसका दिल के भीतर के भी भीतर कही ठिकाना था.

6/8/07

एक लघुकथा में एक बड़ी कहानी

अंतिम इच्छा
जब तक उसकी बांहों में बल रहा , उसने मेहनत मशक्कत करने से कभी जी नहीं चुराया और हमेशा अपने दोनों बेटों की नाजो नेमत में लगा रहा. लेकिन जब उसी जवानी के जोश में बुढ़ापे का जंग लगना आरंभ हुआ तो बेटों को भी अंगूठा हीन एकलव्य् सदृश मां बाप की उपस्थिति दूध में पड़ी मक्खी की तरह खलने लगी. बूढ़े की आँखों में धूल झोंक कर जमीन जायदाद अपने हाथों में कर ली. दोनों भाईयों के आधे आधे हिस्से भी बंट गये. वृद्ध माँ बाप को खर्च भी दोनों ने आधा आधा बांट लिया. मगर पके आम सी जिस वय में प्यार की आवश्यकता पहले है पैसा साथ भी दे सकता है तो कहाँ तक ? एक दिन बूढ़ा कही जा रहा था. धूप की मार बरदाश्त नहीं हुई और चलते चलते ही.........
इधर शाम हो गयी पर बूढ़ा नहीं आया तो बुढ़िया की व्याकुलता बढ़ने लगी . बेटों को खोज खबर लेने को कहा तो जवाब मिला कि कोई दूध पीते बच्ची थोड़े ही है जो खोजने जायें. मगर जब संतोष नहीं हुआ , तो स्वयं निकल पड़ी. भीड़ देखकर एक जगह पता करना चाहा तो हैरान रह गयी. बूढ़ा मरा पड़ा था ”किसी ने गला घोंट दिया है.” ”हमें तो लगे है शराबी. नशा में है.” ”नहीं मर चुका है जी.”
जैसे लोग वैसी बदी. बुढ़िया से रहा न गया. ‘आप लोग परेशान मत होईए. ये मेरे पति हैं’ लोग सहानुभूति जताने लगे.’क्या दुर्गति हो गयी भले मानस की, बूढी माँ तेरा कोई बेटा नहीं है. क्रिया कर्म की व्यवस्था करो.’
तभी कही से दोनों बेटे भी आ गये. पर हाय! कोई कफन खरीदने को भी तैयार नहीं. एक अपनी खाली जेब की दुहाई दे रहा है तो दूसरा उसका भी काँच काटता है. ‘मरे पर खर्च करने को जरूरत क्या है?’
काफी चाय चूँ के बाद दोनो में समझौता हुआ तो जाकर कफन की व्यवस्था हुई. दो अन्य लोगों ने मिलकर कन्धा दे दिया. श्मशान पहुंच कर बाकी कार्य भी ठीक ढंग से सम्पन्न हो गया. लोगों के वापस लौटने का वक्त भी आ गया. पर बुढ़िया वैसे ही चिता की और निर् निमेष ताक रही थी. बेटों ने देखा तो झकझोर कर जगाया. “माँ...” बेटों को देख बुढिया के आगे फिर एक बार चौराहे की घटना एक एक कर नाच गयी.. उसके जी में आया वह उसे जोर जोर से गालियां देने लगे. ‘ कफनचोर कहीं के नहीं जाना तुम्हारे साथ.’
बेटों का सब्र टूटा, “बोलती क्यों नहीं माँ? चलो न घर को.”
वह बोलती हुई काँप गयी,”बेटा, अब एक ही आकांक्षा है . पैरों के बल श्मशान आ गयी हूँ तो नहीं चाहती चार लोगों के कंधे को फिर कष्ट हो बस.” बेटों के पास कोई जवाब नहीं था. उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि अब वे क्या कहें.

4/8/07

न हँसे कोई, न मुस्कुराए, बस ठहाका लगाया जाय


ज सुबह सुबह् एक मेल मिला
प्रिय बसंत जी, किसी ने ख़ब ही कहा है- हँसना रवि की प्रथम किरण सा, कानन मेंनवजात शिशु सा . हमारा वर्तमान इतना विचित्र है,की अपनी इस सहज ,सुलभ विशिष्टताको हमने ओढ लियाहै, हर आदमी इतना उदास है,की उसे हँसने के लिए लाखों जतन करनेपड़ते हैं. हँसने के लिए.कोशिश करना इंसान के लिए बहाने ढूँढना या फिर दिखावाके लिए हँसना हमारे व्यक्तित्व केखोखलापन को उजागर करता है. ईश्वर हर जगहइंसानों को जोर -जोर से हिल-हिल कर हँसनेकी कोशिश करते देख वाकई हँसता होगा, क्योंकि ईश्वर तो उदास नहीं हैं. हम उदास हैं.हमारी मशीनरी दिनचर्या ने हमेंचिरचिरा बना दिया है,हम हँसने के लिए वजहढूँढ़ते हैं,यदि ज़िंदगी को कुछ कमगंभीर कर लिया जाये, तो इस अद्भुत आश्चर्य हँसी कोमहसूस कर सकेंगे. आपकाठहाका मेरे शरीर के पोर -पोर को रोमांचित कर गया,बेहद सुंदर प्रस्तुति, बेहदसुंदर संयोजन. कोटिश: बधाइयाँ, इस शेर के साथ
हर शख्स के भीतर इक नयाअहसास जगाया जाय , की उनका आईना पलटकर उन्हें ही दिखाया जाय , मगर यह शर्तहो सबके लिए महफ़िल जमे जब भी- न हँसे कोई, न मुस्कुराए, बस ठहाका लगाया जाय .
आपका- रवीन्द्र प्रभात
फिर तो कई बातें याद आने लगी. उस दिन बड़ी गहमा-गहमी थी उस कालेज के प्रांगण में. मुझे शहर के कवि मित्र राम चन्द्र विद्रोही वहाँ घसीट कर ले गये थे. एक युवा कवि रवीन्द्र प्रभात् -की काव्य पुस्तक का विमोचन था उस दिन. ये सुन्दर नौजवान उस कालेज में भूगोल पढ़ाता था. शहर के सारे गण्यमान्य लोग वहाँ उपस्थित थे. नेता थे, मंत्री थे. प्रोफेसर थे , प्रिंसपल थे, छात्र थे, छात्रायें थी. मतलब जो भी हो सकते थे वहाँ थे. ये शख्स कवि के रूप में कितना लोकप्रिय था ये तो पता नहीं परंतु एक इंसान के रूप में गजब रूप से पोपुलर है इसका भरोसा हो गया. मैंने भी बधाईयाँ दी. प्रोग्राम के बाद घर आ गये. अगले दिन या शायद अगले के अगले दिन घर के बाहर से रिक्शे में बैठे एक व्यक्ति ने पुकारा. देखा जनाब मुझ से मिलने मेरे घर आये हैं. मैंने कहा – रिक्शा छोड़ दीजिए. बोले नहीं गरीब बेचारा कहाँ जायेगा और रिक्शे वाला दो घंटे तक बाहर इंतजार करता रहा. दरअसल ये उनकी अदा था. वे कभी भी पूरा रिक्शा करते थे. मतलब कोई शेयरिंग नहीं. शहर भर में उससे चक्कर लगाया करते थे. रात को रिक्शे वाले को एक मुश्त पैसा दे देते थे. रिक्शा वाला खुश कि इतना तो कितना भी भार ढोते तो नहीं मिलने वाला था. बाद में मुझे पता चला कि भाई साहब को शहर का हर रिक्शा वाला जानता पहचानता था और उन्हें देख कर चाहता था कि आज का दिन उनका रिक्शा पवित्र हो तो शाम का प्रसाद पाकर मजा आये.
अब एक मजे की बात बनाये कि इनकी हस्तलिपि इतनी अच्छी है कि इनका एक हाथ से लिखा पत्र पढ़ कर सहारा ग्रुप् के एक उच्च और पारखी अधिकारी ने इन्हें लखनऊ बुलाया और कहा इतने अच्छे हस्तलिपि वाले व्यक्ति को हमारी कम्पनी में होना चाहिए और अच्छी खासी पगार वाली नौकरी दे दी. वैसे ये अलग बात है कि उस कम्पनी में सारे पत्र व्यवहार कम्प्यूटर से ही होटल है. तो अब कवि जी लखनऊ में अपने मकान में रहते है. अपनी गाड़ी में अपनी बीवी और अपने बच्चो के साथ लखनऊ की गलियों में घूमते है. मांस मछली से परहेज नहीं करते और लोगों को दारू शारू पिला कर नाली में गिराने में आगे रहते है . मतलब पोंगा पंथी नहीं है इनकी एक खास बात है कि जो भी इनसे एक बार मिलता है उसे ये अपना बना लेते है. चाहिए तो कभी आजमा कर देख लीजिए.

2/8/07

दिमाग में शिवजी की जटा से भी ज्यादा उलझाव है

ओम जी को भूल गये? आपने उन्हें याद ही कब किया कि भूलेंगे. क्या पता आप उन्हें जानते ही न हो. दिल्ली में रहने वाले कई मिले जिन्होने लाल किला ही नहीं देखा जब कि उनकी उम्र भी लाल किला से कम न होगी. अब आप ये न कहाना कि मेरा इतिहास कमजोर से भी ज्यादा कमजोर है. हाँ समाज को जरा समझने की ललक है. अगर आप जयपुर जायें और वे आपसे मिलने को राज़ी हो जायें तो उनसे जरूर मिलिए. आपको ऐसी ऐसी जगह घुमा सकते हैं जो राजस्थान के लोगों को भी मालूम नहीं. एक रिक्शे वाले ने बताया कि ओमजी ने एक बार जयपुर में एक रिक्शा वाला मुझे मिला . उसने बताया कि वह बीस सालो से रिक्शा चला रहा है. जाने कितने विदेशी सैलानियों को जयपुर घुमा चुके हैं. जयपुर में हर जगह के बारे में जानते हैं ऐसा वे मानते है. पर ओमजी ने उस रिक्शे वाले को एक जगह ले चलने को कहा . रिक्शा वाला भौचक था कि ऐसी तो कोई जगह नहीं . ओमजी ने कहा - है तो है. और हम ढूंढ कर छोडेंगे. 250 साल पहले एक अंग्रेज जब इस जगह के बारे में इतना कुछ लिख कर गया तो जगह उड कर तो कही नहीं जायेगी. पन्द्रह दिन तक रिक्शे में ओमजी और जयपुर में रिक्शा दौडता रहा. और आखिर वो जगह मिल ही गई. वो जगह कौन सी है जिसके बारे में उस अंग्रेज ने लिखा था और 99% अंग्रेज भी उस जगह को देखे बिना जयपुर से लौट जाते है ये जानने के लिए या तो आप ओमजी को मेल कीजिएया उन्हें फोन कीजिए. फोन नं उनसे मेल कर के पूछ सकते हैं लोग कहते हैं कि हस्त लिपि भी एक विज्ञान है और इससे व्यक्तित्व का पता चलता है. जिसकी लिखावट सीधे सादी साफ है आदमी भी साफ है और जो जटिल लिखावट का मालिक है उसके दिमाग में शिवजी की जटा से भी ज्यादा उलझाव है और उससे जो गंगा निकलती है उसमे शिवजी भी डूब जाये. ओम जी कवि तो है ही पर उनकी हस्तलिपि देख कर उन्हें ये बताईए कि वे आदमी कैसे है. 982922114_b6cb80e0f8

1/8/07

क्यों खुशी मेरे घर नहीं आती

देवी नागरानी 981610061_325a03b0aa_tसे कभी मुलाकात नहीं हुई क्योंकि जब से मैं मुम्बई में रह रहा हूँ बस से वे भारत से बाहर अमरीका में रह रही है. इस साल जब वे अमरीका से भारत दौरे पर आई थी तो फोन पर उनसे बात हुई. मैं मिलना चाह रहा था पर उस वक्त वे पुनः अमरीका की खोज करने जा रही थी . बातों बातों में मुलाकात भी अच्छी थी. मैंने कहा - अमरीका जाकर आप भूल जायेंगी तो झट उन्होने एक स्वरचित शेर सुनाया


न बुझ सकेंगी ये आन्धियाँ


ये चरागे दिल है दिया नहीं


तब मुझे यकीन आ गया कि देवी नागरानी अमरीकी हिन्दी साहित्य की एक सशक्त लेखनी का नाम है. उन्होने अंपनी पुस्तक भिजवाई. उसका शीर्षक ही था- चरागे दिल. पढ़ कर यही लगा कि देवी नागरानी ऐसी देवी है जिनके आगे दिया नहीं जलाया जाता . बल्कि वे खुद एक दिया है जो अनवरत जलती रहती है. इसी लिए उनकी गजलो में जलने जलाने की बातें घूम फिर कर आ ही जाती है.


मैं अन्धेरे से आ गई बाहर


जब से दिल और घर जला मेरा


हम अपनों से चोट खाते है क्योंकि उनसे हमारी अपेक्षाये जूड़ी रहती है इसलिए उन्हें भी कहना पड़ा- भर गया मेरा दिल अपनों से सुख से गैरो के बीच रहती हूँ पर वे फिर कहती है


क्यों खुशी मेरे घर नहीं आती


क्या उसे मैं नजर नहीं आती


ख्वाब देखूँ तो किस तरह देखूँ


नींद तो रात भर नहीं आती


अब उन्हें कौन बताये कि खुशी आसमान की तरह है जो चार कदम आगे बढो तो चार कदम और दूर भाग जाती है. उनके गम भी अजीब है


अन्धेरी गली में घर रहा है मेरा


जहाँ तेल बाती बिन एक दिया है


पर वे एक दरिया दिल इंसान है तभी तो वो कहती है


मिट्टी का मेरा घर अभी पुरा बना नहीं है


हमसफर गरीब मेरा, बेवफा नहीं है


विश्वास करो तो करे वरना छोड़ दो


इस दुम समय मेरा बुरा हैं, मैं बुरा नहीं


अब हमारे साथ मिलकर यही दुआ कीजिये की हमारी इस शायरा का मिट्टी का घर पूरा बन जाये और उसके हमसफर कि गरीबी भी दूर हो जाये. वरना वे हमेशा यही गुनगुनाती रहेंगी


यूँ उसकी बेवफाई का मुझको गिला न था


मैं एक तो नहीं थी जिसको कुछ मिला न था.