30/7/09

हम एक राह के मुसाफिर है


कहीं अन्दर

बहुत अन्दर

खुद को तुझ में पाता हूँ

और तुम को खुद में

पर फिर भी जाने कौन सी

शीशे की दीवार है कहीं

कि न मैं तुम्हें छू पाता हूँ

और न तुम मुझे

हम एक ही राह के मुसाफिर है

पर एक राह के मुसाफिर

युगों-युगों से श्राप ग्रस्त है

कि वे एक दूसरे के साथ चलते हुए भी

एक दूसरे को नहीं पहचानते

क्योंकि उनकी नजरे एक दूसरे पर नहीं

दूर कही मंजिल पर होती है.