(एक बार फिर पूरानी यादे जो अपके सामने प्रस्तुत है)
कौन हो तुम
जो अकसर
मेरी यादो के झरोखे से
झांक झांक जाती हो
और घूंघट उठाते ही
दूर दूर तक भी
कही नजर नही आती हो
अजीब बात है यह
कि जब बन्दकर देता हूँ
दरवाजे खिड्कियाँ सब
तभी तुम आती हो
चुपके चुपके
पता नही किधर से?
सन्नाटे के क्षणो मे
बरबस ही
गूँज जाती है एक आवाज
वह तेरी ही....
फिर लम्हो ही लम्हो मे
उठता है एक दर्द
जो मीठा होता है
एक तुफान सा उठता है !
5 टिप्पणियां:
बहुत ही खूबसूरत रचना है...
दिल को छूती हुई...
बेहतरीन रचना, बसंत...अपना नम्बर ईमेल नहीं किया.
’सकारात्मक सोच के साथ हिन्दी एवं हिन्दी चिट्ठाकारी के प्रचार एवं प्रसार में योगदान दें.’
-त्रुटियों की तरफ ध्यान दिलाना जरुरी है किन्तु प्रोत्साहन उससे भी अधिक जरुरी है.
नोबल पुरुस्कार विजेता एन्टोने फ्रान्स का कहना था कि '९०% सीख प्रोत्साहान देता है.'
कृपया सह-चिट्ठाकारों को प्रोत्साहित करने में न हिचकिचायें.
-सादर,
समीर लाल ’समीर’
भाई बसंत ,
प्रत्येक वर्ष दो-चार पोस्ट डालकर प्यासा छोड़ देना
कोई अच्छी बात है , क्या हाल बना रखा है चिट्ठे का ...कुछ लिखते क्यों नहीं ?
prabhavit karne waali rachna...
vasant bhai utkrust rachna ke liye koti koti badhayee.
dr.rao
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