बडी लाइन से बावन किलोमीटर हटके
छोटी लाइन के छोटे रेलवे स्टेशन
चकुआ डीह के
गार्ड बाबू बडे ही दु:खी रहते है
दु:खी तो रहते है स्टेशन मास्टर तक
आइंस्टीन से कम कोशिश नही करते
यह समझने की कि
क्यो बना यहाँ स्टेशन
जब दिना भर मे एक ही ट्रेन गुजरनी है
और वो भी रुकने की नही
चली जाती है ठेंगा दिखाती हुई
धरधराती हुई
क्या यह उनका समय है
जो उन्हे ही ठेंगा दिखा रही है
या उनका भाग्य
जो धरधराता हुआ उनसे दूर निकला जा रहा है
छोटे से स्टेशन पर
कुछ नही है ऐसा भी नही
सन्नाटा है गजब का
जो दिनभर मे एक बार टुट जाता है
स्टेशन मास्टर सोचते है
इससे तो अच्छा था किसी टुटे फुटे
स्कूल के मास्टर होते
जहाँ आकर
कुछ बच्चे रोज रुकते तो सही
किताबे चढती
पोथियाँ उतरती
कुछ होता सा लगता
ये सन्नाटा विवश तो नही होता
दिन भर मे फकत एक बार टुटने के लिए !
8 टिप्पणियां:
bahut achche.
बहुत अच्छी रचना...आप भी यहां जरूर आएं
http://veenakesur.blogspot.com/
अरे यार, हमें दिलाओ ये नौकरी। मजाक नहीं, बहुत तमन्ना है ऐसी नौकरी की। हो सकता है सचमुच करने को मिलती तो हमारे जज्बात भी इस कविता जैसे ही होते लेकिन फ़िलहाल तो ....।
बहुत अच्छी प्रस्तुति लगी।
चर्चा में आज आपकी एक पुरानी रचना नई पुरानी हलचल
अब क्यों नहीं लिख रहे हो?
खूबसूरत कविताएं लिखते हैं आप.. बधाई। एक सुझाव। ब्लॉग में इस्तेमाल किए गए रंगों पर थोड़ा ध्यान देने की जरूरत है। मेरे ख्याल से हल्के या सफेद पर गहरा रंग हो, तो पढ़ने वाले को सुविधा रहती है। या फिर गहरे पर सफेद। इस वजह से आपकी पोस्ट पढ़ने में थोड़ी असुविधा हुई।
plz contact me at rasprabha@gmail.com
बहुत सुंदर...!!!
यूं ही लिखते और आगे बढ़ते जाइये...!
आचार्य मदन टी.कौशिक,मुंबई
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