11/6/15

ठहाका: एक अमिताभ बच्चन एक माधुरी दीक्षित और एक वकील साहब

ठहाका: एक अमिताभ बच्चन एक माधुरी दीक्षित और एक वकील साहब

8/8/10

चकुआडीह

बडी लाइन से बावन किलोमीटर हटके
छोटी लाइन के छोटे रेलवे स्टेशन
चकुआ डीह के
गार्ड बाबू बडे ही दु:खी रहते है
दु:खी तो रहते है स्टेशन मास्टर तक


आइंस्टीन से कम कोशिश नही करते
यह समझने की कि
क्यो बना यहाँ स्टेशन
जब दिना भर मे एक ही ट्रेन गुजरनी है
और वो भी रुकने की नही
चली जाती है ठेंगा दिखाती हुई
धरधराती हुई

क्या यह उनका समय है
जो उन्हे ही ठेंगा दिखा रही है
या उनका भाग्य
जो धरधराता हुआ उनसे दूर निकला जा रहा है

छोटे से स्टेशन पर
कुछ नही है ऐसा भी नही
सन्नाटा है गजब का
जो दिनभर मे एक बार टुट जाता है

स्टेशन मास्टर सोचते है
इससे तो अच्छा था किसी टुटे फुटे
स्कूल के मास्टर होते
जहाँ आकर
कुछ बच्चे रोज रुकते तो सही
किताबे चढती
पोथियाँ उतरती
कुछ होता सा लगता
ये सन्नाटा विवश तो नही होता
दिन भर मे फकत एक बार टुटने के लिए !

10/3/10

प्रेम में डूबी औरत

ये जैसी है वैसी दिखती नही है

ये जैसी दिखती है वैसी है नही

ये औरत

जो कभी थकी थकी सी

कभी कभी ऊर्जा के अतिरेक से भरी हुई दिखती है

अपने घर में घूमती हुई

पडोसियों से बतकहियाँ करती हुई

इसे शहर की आग ने बहुत तपाया है

तपा तपा कर पिघलाया है

और सोना बनाया है

इस पूरी प्रक्रिया में

बिल्कुल तरल हो गई है औरत

चक्करघिन्नी सी घूमती रहती है जो

घर से स्कूल

स्कूल से दफ्तर

दफ्तर से बाजार

और बाजार से घर तक

कभी अचानक हंस पडती है

कभी अचानक रोने लगती है

पता नहीं चलता

यह दमित हंसी है

या दमित रूदन

जो मौका पाकर निकलने की कोशिश में है

चाँदनी से बात करती है

और सूरज से दो दो हाथ भी

प्रेम में डूबी इस औरत का रहस्य

समझने की नहीं

सिर्फ महसूस करने की एक आदिम चाह है

नन्हे बच्चो में खोई है यह

बगैर पति को भुलाये हुए

बूढे होते माँ बाप की चिंता में भी मग्न है

कितना विशाल है आँचल इस औरत का

पर दुःखी है औरत इस विशाल आँचल से भी

जिसमे दुःख के पत्थर भारी

सुख के फूल कम है.

औरत की आँखे हँसते हँसते भी बहुत नम है.

5/1/10

कौन हो तुम जो सपनो मे छेड जाती हो !!!!!

(एक बार फिर पूरानी यादे जो अपके सामने प्रस्तुत है)

कौन हो तुम
जो अकसर
मेरी यादो के झरोखे से
झांक झांक जाती हो
और घूंघट उठाते ही
दूर दूर तक भी
कही नजर नही आती हो
अजीब बात है यह
कि जब बन्दकर देता हूँ
दरवाजे खिड्कियाँ सब
तभी तुम आती हो
चुपके चुपके
पता नही किधर से?
सन्नाटे के क्षणो मे
बरबस ही
गूँज जाती है एक आवाज
वह तेरी ही....
फिर लम्हो ही लम्हो मे
उठता है एक दर्द
जो मीठा होता है
एक तुफान सा उठता है !

30/12/09

एक खत

(फिर एक पुरानी डायरी से )

बडे भैया
लौट आओ अब
अपना भी गांव
कोई बुरा नही
बड्की भाभी के
पांवो की रुनझुन
बडे उदास है
तुम्हारी बिन
तुम्हे ही ढुंढते है
हर पल
हर दिन !

गांवभर के बच्चे
जवार भर की गाये
आंचल मे सहेजे
वह ठंडी हवाये
कर रही तुम्हारी प्रतीक्षा
लौट आओ अब !

हल वे अब भी
चडमडाते है
बैलो के श्वास तक
है बेआवाज
उनकी घंटियो का स्वर
पिछवारे के कटहल तक
जा जाकर लौट आता है !

और हाँ
मटर के खेत मे
कल जब पछिया की सिटकरी
जोर से गूंजी
तो दद्दू चिहूंक उठे
क्या बडका लौट आया है
लौट आओ भैया
अब लौट आओ तुम!

परसो ही गाडी से
छुट्की विदा हो जायेगी
छोड कर
अपने हसरतो के गांव को
हम उसे
पहुंचाने जायेंगे टिसन तक
तुम भी आना भैया
जरुर आना !

पराये महल लाख लुभाये
अपनी झोपडी तो
अपनी ही होती है !

25/12/09

बाद तुम्हारे विदा होकर

(कुछ यादे अनकही ही रह गयी जीवन मे -दोस्तो मै आपको यह बताना चाहूंगा कि यह रचना हमारे काँलेज के दिनों मे लिखी गयी थी)

बाद तुम्हारे विदा होकर
चले जाने के
नही रह पाउंगा दुखी
नही होऊँगा घडी घडी उदास
और भी बहुत कुछ है
जिसे पाया जा सकता है या
इसी तरह
की जा सकती है कोशिश
कोई कविता की किताब
या फिर
एक नई भाषा ही सिखूंगा
उन मजनूओ की भांति
क्यो फिरुंगा मारा मारा
दोस्तो को लिखूंगा खत
भले ही ,
नही लिखूंगा तेरी याद मे
कोई भी कविता,
पापा की कमीज पर
करूंगा इस्त्री
या गमलो मे डालूंगा पानी
खो जाऊंगा
किसी परीक्षा की तैयारी मे
मगर नही सुनून्गा
पुरानी हिन्दी फिल्मो के
दर्द भरे वो नगमे
बाद तुम्हारे विदा होकर
चले जाने के

30/7/09

हम एक राह के मुसाफिर है


कहीं अन्दर

बहुत अन्दर

खुद को तुझ में पाता हूँ

और तुम को खुद में

पर फिर भी जाने कौन सी

शीशे की दीवार है कहीं

कि न मैं तुम्हें छू पाता हूँ

और न तुम मुझे

हम एक ही राह के मुसाफिर है

पर एक राह के मुसाफिर

युगों-युगों से श्राप ग्रस्त है

कि वे एक दूसरे के साथ चलते हुए भी

एक दूसरे को नहीं पहचानते

क्योंकि उनकी नजरे एक दूसरे पर नहीं

दूर कही मंजिल पर होती है.

11/6/09

इंतजार है उस चिड़िया का

वो नन्हीं चिड़िया भी अजीब थी
हमारे छोटे से घर के
छोटे से बरामदे के
एक कोने में बना रही थी
अपना
छोटा सा घोंसला

बरसात शुरू होने के
बिल्कुल पहले

हम हैरान होते
बिना किसी कैलेंडर के
चिड़िया को कैसे
लग जाती है खबर
मानसून के आमद की ?

सुबह की पहली किरण फूटने से
शाम ढ़ल जाने तक
चोंच में दबा दबा कर लाती थी
सूखी घास के अनगिन तिनके
जाने कहाँ कहाँ से
और कितनी कितनी दूर से

पत्नी सफाई करते
बड़ा ध्यान रखती थी उस घोंसले का
और तारीफ करती थकती न थी
चिड़िया के हौसले का

कहती थी –कैसे लगी रहती है
दिन भर अपने काम में
शायद पत्नी देखती थी चिड़िया में
अपना ही अक्श

पड़ोसी कहते थे रोज
घोसले को हटाने की बाबत
कहते थे चिड़िया है तो
चिड़िया की तरह रहे

बाहर या किसी पेड़ पर बनाये
अपना घोंसला


ये क्या बात हुई
आज बरामदे में है
कल ड्राइंग रूम में आ जायेगी

आखिर
किसी भी चीज की हद होती है

उन्हीं दिनों हम ढूँढ़ रहे थे
एक नया घर

हमारी हिम्मत नहीं होती थी
कि कुछ भी ऐसा करें

कुछ ही दिनों बाद
हमने अपने
नये घर में प्रवेश किया
और अलविदा कहना पडा उस चिड़िया को

परंतु आज भी
इंतजार है उस चिड़िया का
जिसने नया घर ढ़ूँढ़ने में
हमारी बेहद मदद की
और शायद दुआयें भी.

4/6/09

प्रेम गली से गुजरो तो

एक अरसा बीत गया आप लोगों से मिले हुए. ये कहना भी कुछ सही नहीं है. बल्कि कहना चाहिए कि एक अरसा हो गया आप लोगों को मुझ से मिले हुए. आप लोगों से तो मैं मिलता ही रहता हूँ. एक मुक्तक से अभी अभी मुक्त हुआ हूँ तो इस बार वही आपके हवाले--

दिल को दिल तक जाने में एक जमाना लगता है

उन आँखों केअंदर मुझको एक मयखाना लगता है

कोई पागल , कोई मजनू , कोई दीवाना कहता है

प्रेम गली से जो गुजरो तो ये जुरमाना लगता है.

2/1/08

तन किसमिस पर मन अंगूर

तकते हुए न कभी थकते है रूप बूढे रूप देख झुर्रियों पे रंग चढ जाता है,

तन किसमिस पर मन अंगूर बन पल में ही सातों आसमान चढ जाता है,

बूढो का न दोष कोई इसमे है रंचमात्र रूप देखके जो रूप पर मर जाता है,

सच तो ये है कि रूप सामने दिखाई दे तो मरे मुर्दे का हर्टबीट बढ जाता है.