ये जैसी है वैसी दिखती नही है
ये जैसी दिखती है वैसी है नही
ये औरत
जो कभी थकी थकी सी
कभी कभी ऊर्जा के अतिरेक से भरी हुई दिखती है
अपने घर में घूमती हुई
पडोसियों से बतकहियाँ करती हुई
इसे शहर की आग ने बहुत तपाया है
तपा तपा कर पिघलाया है
और सोना बनाया है
इस पूरी प्रक्रिया में
बिल्कुल तरल हो गई है औरत
चक्करघिन्नी सी घूमती रहती है जो
घर से स्कूल
स्कूल से दफ्तर
दफ्तर से बाजार
और बाजार से घर तक
कभी अचानक हंस पडती है
कभी अचानक रोने लगती है
पता नहीं चलता
यह दमित हंसी है
या दमित रूदन
जो मौका पाकर निकलने की कोशिश में है
चाँदनी से बात करती है
और सूरज से दो दो हाथ भी
प्रेम में डूबी इस औरत का रहस्य
समझने की नहीं
सिर्फ महसूस करने की एक आदिम चाह है
नन्हे बच्चो में खोई है यह
बगैर पति को भुलाये हुए
बूढे होते माँ बाप की चिंता में भी मग्न है
कितना विशाल है आँचल इस औरत का
पर दुःखी है औरत इस विशाल आँचल से भी
जिसमे दुःख के पत्थर भारी
सुख के फूल कम है.
औरत की आँखे हँसते हँसते भी बहुत नम है.
9 टिप्पणियां:
औरत की आँखे हँसते हँसते भी बहुत नम है. nice
कभी अचानक हंस पडती है
कभी अचानक रोने लगती है
पता नहीं चलता यह दमित हंसी है
या दमित रूदन
जो मौका पाकर निकलने की कोशिश में है
चाँदनी से बात करती है
और सूरज से दो दो हाथ भी
प्रेम में डूबी इस औरत का रहस्य समझने की नहीं सिर्फ महसूस करने की एक आदिम चाह है
Nice..
आपने बहुत अच्छी रचना की ,हंसते हंसते भी आंखे नम है गहराई से लिखा है बधाई।
बहुत ही उम्दा रचना, बसंत जी.
एक शेर अर्ज है इस कविता के परिप्रेक्ष्य में -
"आँख से आंसू छलक जाते अभी तक -
ईश्क में संजीदगी जो रह गयी है !"
सुन्दर कविता , कोटिश: बधाईयाँ !
वाह...भारतीय नारी का बढ़िया चित्रण
इस पीड़ा को तो कोई औरत ही लिख सकती थी भाई ,
संवेदना की पराकाष्ठा है इस रचना में
बहुत सुन्दर प्रस्तुति! मेरे पास इस रचना की तारीफ़ के शब्द नहीं है!
आज आपकी कई रचनाएँ पढ़ी, कुछ अलग हटकर हैं आपकी रचनाएँ, बहुत अच्छा लगा पढ़कर!
बसंत जी
आपकी इस कविता ने बहुत कुछ कह दिया है ... एक स्त्री के मन को आपने थाम लिया है ... मेरे पास शब्द नहीं है , इसकी तारीफ़ के लिये ..
दिल से बधाई
विजय
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